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Posted: July 10, 2019 in Uncategorizedपुरानी नाव
(एक बात कथा)

फोटो साभार: इंटरनेट
पुरानी नाव कई वर्षों से औंधी, चीर निद्रा में सोयी हुई है। बाज़ार रोज़ की तरह ही आज भी अपने नियत रूप से चल रहा है। इस शहर के लोग या तो सुबह काम पर जाते हुए दिखते हैं या शाम को काम से वापस आते हुए। सभी एक गुमशुदा लबादे में अपने – अपने कामों में व्यस्त, ये एकदम नयी बात है। जिसकी जड़ें पश्चात आदिम ज़रूरतों से गुथी हुई हैं। जब हम रोज़ केवल आते-जाते हैं। तो मैंने सुना है कि पाणिनी की रस्सी सुस्त हो घिस कर एक निशान बनाती है। एक मार्ग बनाती है। जिस मार्ग से पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे प्रेत आना और जाना करते हैं। नदियों और नावों के रास्ते नहीं बल्कि घिसे हुए रस्सी मार्ग से।
ये प्रेत कॉलोनी, कस्बे, ऑफिस- दफ्तर में एक आदिम चित्कार करते हैं, जो हमारे कानों तक कभी पहुँच नहीं पाती। इस भीषण चित्कार ने बाहर सब सुन कर रखा है।वो पुरानी नाव भी इस चित्कार में अपनी शून्यता को तोड़ते –तोड़ते एक अद्भुत रसातल के चिरनिद्र में औधे मुह बिना सुगबुगाहट के सोयी हुई है। नदी के इंतज़ार में।
इस घर बाज़ार के नीचे काफी अरसे से एक नदी दबी पड़ी है और उस पुरानी नाव को इस नदी का लंबे समय से इंतज़ार है। जो इंतज़ार करते – करते नींद में लिन हो गयी है। परंतु नदी का नाव से एक गहरा संबंध है, नदी के सांस लेते ही, उसके जागते ही नाव भी दावानल की तरह उठ पड़ेगी, और नदी में सवार ये नाव समुद्र की दिशा में उफनती चल पड़ेगी। क्या तुमने नदियों को जागते हुए देखा है। क्या तुमने नाव को समुद्र में नहाते देखा है?
जहां कहीं भी कोई नाव चीर निद्रा में सोयी दिखे। उसकी घोर निद्रा तुम्हें कह देगी कि यहाँ कभी इंसान बसा करते थे। जहां औरतें अपनी नाव स्वयं खेती थीं, ये नाविक भर ही नहीं नदी श्रोत थी,ये निद्रा लिन नौकाएँ तुम्हें बता देंगी कि ये गंगा से भी पहले की बात है। और बस झट से तुम उसकी कानों में हौले से दो टूक बात कह देना कि तुम्हारी नींद को विराम देने नदी आ रही है। देखना नाव उछल पड़ेगी। ये नाव जब नदी में बसा करती थी। तब एक गाँव बसा करता था और ये नाव एक माँ की तरह गभीर जल में मुझे सँजोये रखा करती थी। क्या तुमने एक नाव को नदी से खेलते देखा है?
राजकुमार
8/5/2019,टोंक,23: 51
मृणाल
मुक्ति के अर्तनाद की स्व सारथी
यहाँ रंगमंच समूह में कई दिनों से विविध कहानियों की प्रस्तुति एवं इसके विषयवस्तु पर विमर्श का सिलसिला चल रहा है। इस सिलसिले में कहानियों के अलावा स्थानीय या दूरस्थ के घटनाओं को भी शामिल किया जा रहा है। इन जद्दोजहद के पीछे दो मुख्य उद्देश्य हैं कि रंग संभागी निर्माण शैली और विषयवस्तु के अंतर्द्वंद एवं इसके अंतरसंबंधों पर अपनी एक अनुभविक निर्णय एवं समझ बना पाएँ कि विषयवस्तु शैली को जनम देती है या शैली विषयवस्तु को जनम देता है, या दोनों एक साथ एक दूसरे को पोषित करअंकुरित होते हैं, या कुछ और भी, खैर इसी क्रम में मैं, कई दिनो से कई कहानियां पढ़ रहा था कुछ को पहली बार और कुछ को तो कई बार के बाद फिर एक बार। इन कहानियों के उपवन में एक कहानी स्मृतियों से निकल पुनः झाँकने लगी। एक ऐसी कहानी जो सभ्यताओं के क्रूर और प्लास्टिकिया विचारों से दूर विश्वदेव की अवधारणा को हमारे सामने उद्घाटित करता है।
ये वो कहानी है जो एक पत्र में बयां होती है, सभ्य की निर्ममता और असभ्य के दारुण संघर्षों को उकेरती है। इस कहानी में बिन्दु की अंत में असह्य आत्महत्या, मानव के मन के भीतर संचारित होते मानव का असहनीय अंत का रूपक है। असभ्य पर सभ्य की, मानव पर मशीन की, प्रकृति पर अप्राकृत की, मानव पर अमानव, गाँव पर शहर की एक बार फिर जीत है। बिन्दु का शास्त्रों को आत्मसमर्पण तथा जीवन का महामृत्यु को समर्पण हुआ है। अनाश्रित भ्रमणशील बिन्दु को ढ़ान्ढस बँधाती ऊर्जायित करती मृणाल बार –बार सभ्यता के समाने मशीनों के सामने निर्भीक हो अकेले राही की तरह अडिग खड़ी दिखाई पड़ती है। अंतस में बसे मानव के विशाल रूप का अप्राकृत हो जाने पर भी प्रकृति के मंगल जीवन के गीत को, अपने मन के गभीर गहन तल में गाती है। प्रत्येक बार रूढ़ियों के बरक्स उठ खड़ी होती है।
अपने मन के मानव के भ्रूण को सृजित करती, सँजोती है। किसी थमे हुए अग्नि गर्भ की तरह इसको पालती –पोषती है। मानव के सभ्य कंकालों के मध्य निर्भीक आषाढ के बादलों से मनालाप करती अपनी यात्रा की सारथी। मानव जीवन की स्वतंत्रा का शंखनाद करती है। मानव मुक्ति की सतत सजग लालसा को समुद्र की भांति अपने गभीर अथाह उफान से रूपायित करती है। मानव को प्राकृत सृजित करती है। अंधकार पर प्रकाश की एकछत्र जय ध्वनि बरसाती है। मानव मंगल की गीत गुनगुनाती है। मानव की मुक्ति को संचारित करता मृणाल का यह पत्र मानो सीता का अंतिम पत्र हो।
रबीन्द्र नाथ की कहानियाँ केवल सामाजिक परिवेश की ही घटनाओं का दस्तावेजीकरण नहीं बल्कि अंतस और वाह्य जगत के अंतर्द्वंधों को उजागर करती है। जहां विश्वकवि कवि-कहानीकार अपने विश्वदेव में असीम विश्वास को दर्शाता है। मानव के भीतर इसकी पड़ताल करता है वर्तमान को निचोड़ता है, मानव से छूटते जा रहे मानव की डोर की करूण गाथा गाता है। एक मानव के नाते मानव को प्राकृत सँजोये रखने की जद्दोजहद का सिफ़रिश करता है। सभ्य के निर्मम दंश से मानव के मन को तन को आत्मा को लगातार सँजोये रखने का आदिम संघर्ष करता है।
मृणाल विश्वकवि की प्रतिछाया के रूप में नज़र आती है, जिसका बिन्दु रूपी मन बार –बार प्रलयंकारी सभ्यता की रूढ़ियों से खुद को घिरा हुआ और इसके चक्रव्युह में अनैच्छिक आत्मसमर्पित पाता है। विश्वकवि जीवन रूपी पंखुड़ियों को अपने काँधों पर, मृणाल पर असीम काल के सभ्य तूफानों और परमाणुवीय हबोहवाओं से जुझते हुए नव जीवन को सृजित करता है। बारंबार मानव कल्याण के ऋतुओं की गाथा रचता है। एक बार फिर सभ्य महाप्रलय से इतर एक स्वतंत्र संसार की रचना करता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रकृति के पुंज को विस्तारित करता है और मृणाल के माध्यम से हमारी मुक्ति की संकल्पना को संप्रेषित करता है।
रबीन्द्र नाथ इस कहानी से नारी अस्मिता के स्थापन एवं संघर्षो में मानव के मुक्ति की भी कामना को पोषित करते हैं। समाजिक संस्थाओं में व्याप्त रूढ़ियों में स्त्री की अवधारणा को खंडित करते हैं एवं अस्मिता स्थापना में नारी को मानव स्थापित करते हैं। मानव शक्ति के रूप में विश्व मानव स्थापित करते हैं। इस तरह समूचे मानव की अस्मिता, स्वतंत्रता और मुक्ति को विस्तारित करने की सचल प्रेरणा देते हैं। मानव जनित सभ्य कारागारों के वाह्य एवं अंतरमहल में शोषित हो रहे मानव से मानव को पुनः सर्जित करने की दिशा में मानव के रूप में ही मुक्ति की स्वतंत्र कामना करते हैं।
रबीन्द्र नाथ टैगोर के मानव मुक्ति की आर्तनाद के इस कहानी ‘स्त्रीर पत्र’ (पत्नी का पत्र) को काफी लंबे समय के बाद पुनः सुना और पढ़ा, आज यह कहानी कुछ इस प्रकार समझ बना पायी है। आप सभी से इस समझ को साझा कर रहा हूँ। कहानीकार के विषयवस्तु और मानव अस्मिता की दृष्टि दोनों एकात्म हो अपने विशिष्ट शैली को जनम देती है। हाज़िर दुनिया के संघर्षों के रूपक की तरहअपनी आयु संचारित और पोषित करती हैं। भविष्यों के लिए जन्माअंश की भूमिका निर्माण करती हैं फिर एक अन्यतम स्वरूप में परिवर्तित होती है निरंतर, मृणाल की तरह सतत चलने के और मुक्ति की कामना में…।
सादर
राजकुमार रजक
4/3/2019
टोंक –राजस्थान
एक कहानी की दास्ताँ
(अखबार कटिंग साभार दैनिक जागरण )
देश के तमाम मुख्यमंत्री और मुख्य सरकार भारत को इंग्लैंड, अमेरिका और जापान बना देंगे कहने से थकते या चूकते ही नहीं। जबकी भारत के हृदय में अपनी ज़िंदगी के लिए जद्दोजहद से जूझता अकेला सुनसान और शोषित भारत इन्हे दिखता ही नहीं। पहले अपने घर को तो जान ही लो फिर इसका कुछ भी नाम कारण करते रहना। बंगाल की मुख्यमंत्री जब सत्ता के रथ पर सवार हुईं तो कृष्ण वेश धर यह भविष्य वाणी कर दीं की मैं ही महामाया हूँ अर्जुन इस कोलकाता को मैं इंग्लैंड बना दूँगी। अब यह मुख्यमंत्री रूपी कृष्ण के अपने राजनैतिक कुंठाओं के कारण उसे लगता है कि केवल कोलकाता ही बंगाल है। जबकी बंगाल अभी भी उन संकटों से जूझ रहा है। जो कभी प्रगति के पुल को पार कर गईं थी। और अर्जुन यानि मुख्यमंत्री के कार्यकर्ता। इनको जब यह मालूम हुआ की ये कृष्ण रूपी मुख्यमंत्री ही महामाया हैं। तब अर्जुन ने आत्मा अजर अमर है नदी इसे भीगा नहीं सकती और अग्नि इसे जला नहीं सकती के तर्ज़ पर इन अर्जुनों ने समूचे कोलकाता सह बंगाल को रक्तरंजिश कर दिया।
ठीक इसी तरह दो मुख्य अवतारों के माफिक एक तीसरा अवतार भी लंबे समय के बाद उत्तर प्रदेश में हुआ। आप जब उत्तर प्रदेश आएंगे और भरतपुर से लेकर बलिया तक की एक यात्रा करेंगे या इस प्रदेश में कहीं भी तो आप को पता चल जाएगा की ये अवतार कितने गन्दे इलाकों में हुए हैं। जबकी स्वच्छ भारत का शीर्षक गान हम सबके कानों में गूँजता रहता है। या इन इलाक़ो को देख आप विश्वास भी नहीं कर सकेंगे की यह अवतारी शहर के रेलवे स्टेशन से लेकर एक सुलभ तक का हाल खस्ता हो पड़ा है। पर क्या करें मेरा देश तो अवतारों का देश है ख़ैर इस तरह के दूसरे डिपार्टमेन्ट के अवतार वाले देश भी हैं। जहां अभी भी ले दना दन चल ही रहा है।
ख़ैर देश के सेकेण्ड अवतार के बाद तीसरा अवतार मोदी के चरणामृत से उत्पन्न हुआ है। कई युगों पीछे वाले अवतारों की कहानी के सुत्रधार है ये इस युग के तीसरे अवतार योगी साहब जो पुरातन ज्ञान की एक असीम शृंखला हैं। अब क्या करे मोदी महकमे के हैं तो इनके विचरण पर तो एक ही फर्क पड़ेगा कि ये पहनेगे नये खोल पर बजाएँगे पुराने ढ़ोल।
यह अवतार पुत्र भी उत्तर प्रदेश की पुलिस को साइबर का प्रशिक्षण दे रहे हैं और कानून-व्यवस्था में सुधार का परचम लहरा रहे हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस को साइबर का तो प्रशिक्षण दे रहे हैं लेकिन जो पुलिस अनायास ही गरीबों के माँ –बहन का ज़बानी बलात्कार कर देते हैं। जब की देश को माँ के पर्यायवाची के साथ जोड़ा जाता है। तब भी ये पुलिस वाले ऐसा क्यों करते हैं। इसलिए करते हैं की ये केवल एक नौकरी है एक पेशा है बस इससे ज़्यादा और कुछ नहीं। ये सुरक्षा किसको देंगे ये पहले से अनकहे तौर पर तय है और र्ये अपनी ताकत आज़माइश किस पर केरेंगे ये भी ऐतिहासिक रूप से तय है।
बड़े आश्चर्य की बात है की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह सब बखूबी ज्ञात है की ये पुलिस कैसी है फिर भी वो बह रही है आपने निरंतर धून में। फिर जनमानस में विश्वास कहाँ से लाएँगे। जब इनका कोई ज़मीर ही नहीं। अगर ज़मीर का अभाव है तो अभी इंग्लैंड मत बनाइये सबसे पहले शिक्षा और संवैधानिक मूल्यों का विस्तारण करिए। इंग्लैंड बनाने का मतलब केवल दौड़ भाग करने का मैदान नहीं, बल्कि लोकतन्त्र को मजबूत बनाइये और जन मानस में इनका विश्वास भी।
उत्तर प्रदेश के इस तीसरे अवतार को यह समझना चाहिए की यह इंग्लैंड नहीं जहां पुलिस वाले को साइबर का प्रशिक्षण दे रहे हैं। पहले उनको इस तरह का प्रशिक्षण दें की ट्रक वाले के केबिन में हाथ बढ़ा अपना काम ना चलाएं, किसी रिक्शे वाले को, किसी बेरोज़गार युवा को यूं ही अनायास ही उनपर अपने चतुराइयों और पिटाइयों के स्टाइल का प्रयोग ना करें। और इन सबके साथ उन्हे संविधान के मुकयों को पहले जानने –समझने का प्रशिक्षण मुहैया कराएं। ना की केवल मारने –पीटने के प्रशिक्षण। उनको बाताएँ की उसका क़द संविधान से बड़ा नहीं। तभी तो आप इंग्लैण्ड के स्थान पर अपना राज्य, अपना देश बाना पाएंगे। यह तब हो सकेगा जब आप अपने पुराने अवतारी खोल से निकल लोकतन्त्र में एक बार जन मानस के दिक़्क़तों और संघर्षों की बुलंद आवाज़ बनेंगे।
राजकुमार रजक
शहतूत
क्या आपने कभी शहतूत देखा है,
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए.
सबीर हका
अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
जर्मनी में
जब फासिस्ट मजबूत हो रहे थे
और यहां तक कि
मजदूर भी
बड़ी तादाद में
उनके साथ जा रहे थे
हमने सोचा
हमारे संघर्ष का तरीका गलत था
और हमारी पूरी बर्लिन में
लाल बर्लिन में
नाजी इतराते फिरते थे
चार-पांच की टुकड़ी में
हमारे साथियों की हत्या करते हुए
पर मृतकों में उनके लोग भी थे
और हमारे भी
इसलिए हमने कहा
पार्टी में साथियों से कहा
वे हमारे लोगों की जब हत्या कर रहे हैं
क्या हम इंतजार करते रहेंगे
हमारे साथ मिल कर संघर्ष करो
इस फासिस्ट विरोधी मोरचे में
हमें यही जवाब मिला
हम तो आपके साथ मिल कर लड़ते
पर हमारे नेता कहते हैं
इनके आतंक का जवाब लाल आतंक नहीं है
हर दिन
हमने कहा
हमारे अखबार हमें सावधान करते हैं
आतंकवाद की व्यक्तिगत कार्रवाइयों से
पर साथ-साथ यह भी कहते हैं
मोरचा बना कर ही
हम जीत सकते हैं
कामरेड, अपने दिमाग में यह बैठा लो
यह छोटा दुश्मन
जिसे साल दर साल
काम में लाया गया है
संघर्ष से तुम्हें बिलकुल अलग कर देने में
जल्दी ही उदरस्थ कर लेगा नाजियों को
फैक्टरियों और खैरातों की लाइन में
हमने देखा है मजदूरों को
जो लड़ने के लिए तैयार हैं
बर्लिन के पूर्वी जिले में
सोशल डेमोक्रेट जो अपने को लाल मोरचा कहते हैं
जो फासिस्ट विरोधी आंदोलन का बैज लगाते हैं
लड़ने के लिए तैयार रहते हैं
और चायखाने की रातें बदले में गुंजार रहती हैं
और तब कोई नाजी गलियों में चलने की हिम्मत
नहीं कर सकता
क्योंकि गलियां हमारी हैं
भले ही घर उनके हों
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016
को साभार