हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।।

एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार।।

जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार।।

तू बगल में हो जो प्यारे, रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।

और हो जो दूर या कुछ खफा हो हमसे मियां।
तो काफिर हो जिसे भाती है होली की बहार।।

नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम नजीर।
फिर बरस दिन के उपर है होली की बहार।।

नज़ीर अकबराबादी

वो दौर कभी और था वो दौर कभी आयेगा जुरुर जब होली हमारी और ईद हमारी थी और हम इनके इंतज़ार में वसंत के पत्ते गिना करते थे। इस कानाफूसी में लो आ गयी नाज़िर की आहट जो किवाड़ें खटखटा रहा है और तारीखों में आवाज़  दे रहा है तारीखों में…. आवाज़ ss … होली मुबारक़ हो नज़ीर होली मुबारक हो समीर।  

राजकुमार

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वसुधा  

Posted: April 25, 2022 in Uncategorized
वसुधा

वसुधा  

अनल लेख में स्याह अग्नि हूँ

अपने उत्स से ही अग्नि कुंड में गुथी हुई हूँ।

निरंतर अग्नि युद्ध में संघर्षरत हूँ।

तुम्हारे दो टूक जीवन के लिए, तुम्हारे दो टूक सपनों के लिए।

अविराम काल से महाघटनाओं में बलित और फलित होती ही चली हूँ।

तुम सुन्न खड़े पड़े हो।

मेरे तन – मन को तुम ख्नरोंचते ही चले हो। आखिर निर्माण करना क्या चाह रहे हो।

जहां तुम मेरी क्षमताओं को बारंबार ललकार रहे हो।

तुम निर्लज्ज मेरे वक्ष पर खड़े,

मुझे खत्म करने की मीमांसा में जुटे हो।

आह! यह कैसा क्षण है

जब तारों में भस्म राख़ तैरेगी

तब मीमांसा पर मीमांसा के लिए बचा रह जाएगा

अनंत और असीम सन्नाटा

न समय होगा न कोई तीर

इसे सन्नाटा कह सको

न ही को कान होगा और न ही कोई ज़ुबान

मैं भस्म राख़ हो अनंत वेग में गतिमान रहूँगी

बस आज जो हूँ वो सदा -सदा के लिए न रहूँगी  

राजकुमार

9 मई – 2018

गहन विलय 

Posted: April 8, 2022 in Uncategorized

गहन विलय

चिड़िया बैठी

नितांत अकेले

रही निहार दूर दिगंत

मन में पनप रहा गहन गगन

कभी देखती खुद को चिड़िया  

कभी पंख पसारे

आँके – बाँके खुद को देखे

बैठी चिड़िया अपनी सोच पे सोचे

मन में उभर गहन गगन को

क्या उड़ जाऊँ

क्या उड़ जाऊँ दूर दिगंत में

अविरल बहते कल के कल में

बैठी चिड़िया दूर अकेले

गहन गगन की गहराई में।

उड़ गयी चिड़िया

अनंत गगन में

रह गए उसके स्मृति चिन्ह

जो झर झर झर जाएंगे

शीतल जल में बह जाएंगे

बचा रहेगा गहन गगन

खड़ा रहेगा मुह बाए

फिर से इक चिड़िया आएगी

नापेगी

गहन गगन उड़ने को आतुर

चिड़िया बैठी रहेगी अकेली

पंख पसारे – आँके – बाँके

राजकुमार

8 अप्रैल, 2022

ये शहर तहरीर – है – मेरी

ये शहर रूह है मेरी

ये शहर रूह है मेरी

तहरीर है – मेरी

तस्वीर है मेरी  

पहचान है मेरी

तबीयत में घुली ज़ीस्त

है मेरी

है मेरी

नम्दे की वसीयत में सुकून है

सुकून है मेरी

नम्दे की वसीयत में सुकून है मेरी…

ख्वाबों और खिताबों की  

पहली सी …

ये पहली सी

कोशिश है

फ़िराक़ है मेरी

ये शहर नहीं

तहरीर है, मेरी

तस्वीर है,मेरी  

ये पल भर में जुनून है

जज़्बात है मेरी

माँ के हिदायतों में सिकी हुई रोटियों की ख्वाइश है, टोंक

मेरे बचपन में लिपटी हुई

कारनामों की नुमाइश है, टोंक

ये शहर नहीं रूह है मेरी  

ये शहर नहीं रूह है मेरी 

तमन्नाओं की कोशिश

रास्तों की रहनुमाई है, टोंक

मेरे दिल के कोने में बजते नगमों

का आखिर साज़ है, टोंक

ये शहर नहीं रूह है मेरी 

ये शहर नहीं रूह है मेरी 

जो भी चाहे मांग लो

जो भी चाहे रंग लो

उम्मीदों की  पतवार है, टोंक

मेरे जिस्त की सुर्ख़ रूह है, मेरी

रूह है मेरी 

तहरीर है, मेरी

तस्वीर है,मेरी  

हम, उम्मीदों की  हक़दार है, टोंक

जीने की राह में

ज़िंदगी की

ज़िंदगी की

चाह है, टोंक

मेरी बेचैनियों में तिनका सा

आह है, टोंक

ये टोंक है

ये टोंक है  

भीड़भाड़ में खाली सा

मिल जाने की खुशियों सा

जीने की उम्मीदों में

सज़दे करता

उम्मीदों की हक़दार है, टोंक

जीने की उम्मीदों में

मेरा टोंक है… 

मेरा टोंक है।

राजकुमार रजक

(जीने की लालसा से भरे, इस शहर के तपते जद्दोजहद ने मुझे जना नहीं है। कार्यक्षेत्र के विशाल द्वार के झरोखे से दोपहरी में गस्त मारते यहाँ के बचपन में मैंने खुद को खोजा है। जिसने मुझे बचपन से जोड़े रक्खा मेरे उस प्रयोगी बचपन से जो मेरे जीवन का सेतु बन पड़ा है। इस शहर को मेरे पुराने आज और किसी संभावित कल में आज में जो महसूस कर पा रहा हूँ, उसकी क्षणिक अभिव्यक्ति का दुःसाहस कर रहा हूँ।)  

असीम विदाय

Posted: March 17, 2022 in Uncategorized

असीम विदाय

तुम अब एक चित्र हो गए हो

कविता, गीत और ध्रुपद नाटक हो गए हो

संस्मरण की रगो में बहती हुई गर्भ नदी हो गयी हो

जो आज तुम वर्तमान हो

दुनिया का वह एक भविष्य है

जिसमें तुम छिन्न – भिन्न और अनंत हो गयी हो

दार्शनिक, वैज्ञानिक जो बिन्दु खोजे

अब तुम वह बिन्दु हो गयी हो

ब्रह्मांड के सुदूर माने आती सुदूर सूक्षमांश हो गयी हो

एक शिशु के क्रंदन से परे असीम हो गयी हो

जहां कोई आवाज़

जहां कोई भाव

वहाँ सबसे परे हो गयी हो

बस धरित्रि पर विचरण करता तुम्हारा द्रवयांश है।

हर एक स्वाधीनता से परे

कभी न मिल सकने वाली दूरी में रमे

तुम बस कहीं तुमसे भी परे हो गयी हो।

अब एक पुरानी घड़ी में नया समय आरंभ हो रहा है।

इस घड़ी में कहानी का अंश हो गयी हो।

राजकुमार  

18 अक्टूबर, 2020

आत्म मुग्धता एक एसा चश्मा है। जिसमें बाहरी प्रकाश की किरणे आना बंद हो जाती हैं और आप कृष्ण विवर (ब्लैक होल) बन जाते है। जिसमें आप एक सोख्ते की तरह सब कुछ सोख जाते हैं और जोंक की तरह सब ऊर्जा चूसने लगते हैं।

अपः दिपो भवः की रोशनी से भीतर की रोशनी को बाहर और बाहर की जानलेवा विकिरणों को छान कर इसमें छिपे प्रकाश कोक कणों  भीतर के द्वार से प्रवेश मार्ग से सकते हैं। जो अन्दर पहुंच कर एक ज्ञान और अनुभव की यादों से परे एक संसार बनाता है। जो आपको अनंत काल के लिए जीवन का एक स्रोत बनाता है।

कब पता चले की आपका चश्मा मुग्ध हो गया है या कब पता चले कि मैं अपना दीपक बना हूं। इसकी पहली कक्षा के लिए आपको यह समझना चाहिए होता है। इसके लिए उदाहरण स्वरूप इसे समझिए यह  निदा फ़ाज़ली का शेर है,

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिस को भी देखना हो कई बार देखना।

युवा दिलों के युवा दिवस पर

यदा यदा हि…

कोई योगी लोकतन्त्र के नहीं धर्म की कुंठाओं के नेता हैं यानि के धर्मतंत्र के नेता हैं। मुझे कोई अफसोस नहीं की धर्म अभी भी सैकड़ों सदियों में भी सत्ता से जुदा नहीं हो पाया है और आगे के दिनों के इनके दीनानाथ ही मालिक हैं। 

विनोबा भावे की बात को कहते हुए मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ। “आप स्वामी हैं आप सभी मिलकर एक स्वामी हैं । जो अपने सेवक का चयन करते हैं।”

यह बात लोकतन्त्र को मजबूती देती है। इसी तर्ज़ पर यह देखेंगे की जो जन सेवक है। वही जन स्वामी बन बैठे हैं। चाहे गली कूचों के नेता हों या कोई और अंतिम लाइन के नेता। क्या वो जनता सुलभ हैं। नहीं, वो जनता सुलभ कत्तई नहीं। सेवक को मालिक में हमने तब्दील किया है। हम लोकतन्त्र के नागरिक हैं। हम सेवक को सेवक का पाठ पढ़ा सकते हैं पर हमें एकजुट और एकमुठ होना होगा। युवाओं को सांप्रदायिक इतिहास को अंतिम प्रणाम कर अब इसकी जलांजलि देनी होगी और मानवीय चालीसा को अपनाना होगा। संविधान मानवीयता सिखाती है। धार्मिक लालसा आपको मानसिक और शारीरिक दोनों पक्षों से कमजोर करती हैं। हमें आदिम गुलाम, हमें नए दास बनाती है।

हमें कम में गुज़ारा करना और हरी के भजन गाना बचपन से सिखाया जाता है। कम है पर गम नहीं, यह भी सिखाया जाता है। यहाँ तक की नैतिक कथा सुनाई जाती है। रूखी सुखी खाई के ठंडा पानी पिउ, देख पराई चुपड़ी मत ललचाओ जीव। अगर समझ सकते हैं तो आप के पास खुला मैदान है समझने के लिये।  छोटी -छोटी बीमारी में हमारे घर -पड़ोस के लोग मारे जाते हैं। यह भी सोचो की पुलिस किसकी बात सुनती है। नेता नौकरी बनाने की बात करता है। पर मिलती किसको है। किसी कार्यालय में कोई कार्य होतो कोई अवतार चाहिए जो आपके काम करवा दे। पहले सभी जात पूछते हैं और फिर फ़ाइल आगे बढ़ती है। इनसे बचे तो डिग्री पुछते  हैं। अरे काका,  पढ़ने तो दो, सोचने समझने लायक तो बनाने का मौका दो। नहीं तो, चुनावी रैली में बंदर सेना की तरह भूखे प्यासे भागमभाग करो बस। लगता है देशत्वबोध से सराबोर भाषण दे कर आये है, धर्म का प्रचार कर रहे हैं। सब धर्म की दुहाई दे कर अधर्म करते हैं और इंसानियत का पलीता लगाते हैं। युधिष्ठिर हो या दुर्योधन हैं एक ही।

सम्पन्नता से जियो पृथ्वी हमें सब देती है पर ये सब किसका है? अगर अभी तक नहीं सोचा है। तो अब सोचो और ये भी सोचो की वहाँ लाठी लेकर, फांसी लेकर कौन बैठा है।

हमें धर्म पर वोट देने के बजाय अपने जरूरतों पर वोट देना  होगा। ज़रूरत माने केवल सड़क नही जो ब्रितानी हुकूमत से लेकर आज तक बन ही नही पा रही। ज़रूरत केवल रोटी नही उम्दा रोटी उम्दा काम उम्दा शिक्षा। क्योंकि जरूरतों के लिए हम कई देवालयों का दरवाज़ा खटखटाते हैं काठ की घंटियां बजाते हैं। न देव सुने न लोक सुना ,

बहुत ज़हन की लूट हुई। अब खुद के सुनने की पारी है और इंसान की संभावनाओं को वोट दो…धर्म के रूप में छिपे अधर्मियों को नहीं…। युवा हो धृतराष्ट्र नही, हुंकार हो द्रोणाचार्य नही। तुम कर्णधार हो बैल नही। तुम्ही हो युवा अवतारी,अब है हम सब की पारी।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भव- ति भारत ।

अभ्युत्थान- मधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्- ॥4-7॥

मानवीय परचम की अभिलाषा में…

राजकुमार

12/Jan/2021

Tonk

समीक्षा की संभावनाएँ

संस्मरण – कलमकार अजित राय को प्रेषित

शहर से लगभग पचास किलोमीटर दूर एक गाँव कए पास वीरान में रंग – सृजन का उपवन गढ़ उठ रहा था। गाँव वालों की सहायता ऋतुओं की तरह आगमन करती। बस किसी बाग –बगीची की तरह एक निश्चित ऊंचाई तक पेंड –पौधे पनपते बढ़ते हैं। पर हम सभी जानते हैं कि रंग – सृजन के पेंड पौधे अपनी अनिश्चित ऊंचाई के साथ फलती –फूलती हैं। इन फलने – फूलने को उर्वरा बनाए रखने के लिए इन सृजन को इनके सृजनहारों को समीक्षा और आलोचना सिंचन जल प्रवाह का धार बनाती है।

इस रंग सृजन ग्रामाश्रम पर अचानक के गाड़ी आ कर रुकी उसमें से दो लोग उतरे और ग्रामश्रम के विपरीत एक छोटी सी पहाड़ी की तरह मुड़ कर दोनों बात करने लगे। मुझे अभी भी याद है की उन दिनों मैं बैकेट साहब के नाटक वेटिंग फॉर गोदो से समुद्र में गोते लगा रहा था और यह दृश्य देख मैंने अपने साथियों और संगिनी से कहा देखो गोदो आ ही गया। यह मज़ाक एक अलग रूप लेगा यह कुछ क्षण बाद उजागर हुआ।

उनमें एक एक व्यक्ति जो इसी गाँव में पाले बढ़े थे और जिस ज़मीन के अंश पर यह रंगमंच ग्रामश्रम खड़ा हो रहा था, इस ज़मीन से भी उनका गहरा ताल्लुक था। ख़ैर इन दो भद्र व्यक्तियों में से एक श्रीमान ने पूछा राजकुमार रजक कौन हैं आप लोगों में से, मैं बोलता की मेरे एक रंग साथी नें झट से मेरी तरह इंगित कारते हुए बोला। फिर क्या था पास में ही एक पुराना समाधिस्थ चबूतरा था जिस पर हम बैठ पड़े उन्होने अपने पॉकेट से एक अख़बार का टुकड़ा निकाला और देते हुए बोला की हमें मालूम ही नहीं की यहाँ इस सुदूर गाँव में रंगमंच का कार्य हो रहा है और वो भी इस तरह सुव्यस्व्थित जन सहयोग से। उन्होने वापस मेरे हाथ से वह अख़बार का टुकड़ा ले लिया और सभी साथियों को आवाज़ लगाई और उन्होने ने स्वयं इसे पढ़ा एक तोहफे की तरह। यह जनसत्ता अख़बार में प्रकाशित हुआ समीक्षा था। अभी लगभग माह भर पहले हम भारत रंग महोत्सव में ‘टेढ़ा दर्पण’ नाटक खेल कार आए थे। उसी नाटक का यह समीक्षांश था। इस समीक्षा को अजित राय ने लिखा था। जो बेहद प्रभावी रहा हैं।

मैंने कलकत्ता में कई समीक्षाओं को बंगला में पढ़ा था और कुछ स्वयं बंगला में लिखने का प्रयास भी किया था। पर समीक्षा करती क्या है का उदाहरण अब पता चला। उस दिन देर शाम तक वह दोनों व्यक्ति जिनमें एक थे उन दिनों सवाई माधोपुर आकाशवाणी में पदाधिकारी रहे मुकेश चतुर्वेदी जी और दूसरे व्यक्ति उस गाँव के ही थे जो व्याख्याता पद पर कार्यरत होने के कारण शहर विस्थापित हो चुके थे।

इस वीरान में जनसत्ता का यह अखबार का टुकड़ा हमने बहुत ही जतन से सँजो के रखा अलबत्ता अजित राय से मुलाकात की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। इन्ही बीच में इलाहाबाद में पिता जी ने बहन की शादी तय कर दी, हम सभी जानते हैं कि बड़ी –बड़ी अट्टालिकाओं के बीच में बसी हुई बस्ती में जब एक बेटी जवान होती है तो पिता कैसे विचलित हो उठता है असल में यह विचलन हतौत्साह पिता का नहीं बल्कि माहौल का दिया हुआ होता है। एक बेटी का पिता ऊपर से एक रंगकर्मी बेटे का बाप। दोनों ही उन्हे उनके अकान्त मथन में परेशान और हैरान करने वाली घटनाएँ हैं। उन्होने मेरे से बिना संवाद किए बहन कि शादी तय कर दी और हमें बताया कि शादी में दस दिन बाकी हैं तुम अब जो चाहो करो आना है तो आओ या देख लो। रंगकर्मी पिता का आदिम गुस्सा टीसों से भरा होता है। वो टीस कई बार दिलो दिमाग़ में आकाशी बिजली कि तरह भी कौंध ही जाती है। पर गांधी के देश में अहिंसा को सिरहाने रहने से एक अद्भुत ही अभ्यास बना हुआ है और दूसरा इन्टरनेट कैफे में इतना बैठा हूँ की इन्टरनेट की गति ने मेरे पेशेंस को ओलंपिक जैसी ऊँचाइयाँ दे रखी हैं। इन दोनों को धरण करते ही पिता जी को अपने अदने से अनुभवों को सामने रखते हुए उनके नए टीस प्रहार से डरते  हुए कहा की कोई बात नहीं शादी कर दीजिये अगर बहन राज़ी है तो और मेहमानों को क्या करेंगे घबराइए नहीं। आप ने बचपन में जो कहानी सुनाई थी की आपके गाँव में एक शादी हुई जिसमें गुड़ और पानी से बरातियों का स्वागत और विदाई दी गयी। तो पिता जी हम यह कर सकते हैं और गुण मैं यहाँ से लेता आऊँगा। पिता अनमने मन से माता जी से बात करो कह देते और पब्लिक फोन बूथ पर माँ अपनी बातें कहतीं और इस शादी में आने के लिए प्रेरित करती।

यह सब बाते इस लिए कह रहा हूँ की मैं यह कह सकूँ की समीक्षा केवल किसी अखबार का टुकड़ा नहीं होता उसकी एक ज़बान होती है। जिसकी आवाज़ हमारे कानों में तुरही की तरह गूँजती है। नाटक टेढ़ा दर्पण पर लिखे समीक्षा ने आस-पास के लोगों में हमारे कार्यों के प्रति विश्वास संचय करने में काफी मदद की और यक़ीन मानिए शहर जाने से भी कतराने वाले रंग-ग्रामाश्रम के नजदीकी गाँव में रहने वाले लोग जो बहन की शादी के लिए गेहूं, घी और अन्य रसद सामग्री ले मेरे साथ इलाहाबाद मेरे घर आ पहुंचे और बची हुई कुछ जिम्मेदारियाँ मित्रा नटराज और चेतन जी सह आँय मित्रों ने उठाई, जिसे समीक्षा अखबार के टुकड़े में लिपटी ही समीक्षा ने कर दिखाया वैसे मैं जीवन में अजूबा नहीं मानता उसकी एक क्रमिक घटना से जोड़ता हूँ पर इन बातों को इन घटनाओं को स्मृतियों के जंगल में जागृत करता हूँ तो बहुत ही अचरज, उत्साही और रोमांचित हो उठता हूँ।

इस स्मरण से यह कहाँ  चाह रहा हूँ कि अगर समीक्षा को साध्य बनाया तो यह बहुत कुछ कर सकता है। एक समुदाय से अंतःक्रिया एक समुदाय में संवाद का संचयन और भी बहुत दिशाओं में दिशा निर्माण कर सकता है। इस घटना के बाद महसूस होता है कि जैसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालयों और तमाम ऐसे रंग संस्थानों में कम से कम रंगमंच के अन्य विधायों के साथ रंगमंच समीक्षा और रंगमंच पत्रकारिता पर फोकस हो कर इसका कोर्स निर्माण करने कि ज़रूरत है। इस ज़रूरत को सृजित करने वाले रंगमंच समीक्षक कलमकार अजित राय का नए रंग सृजनों का सहृदय आभार। हम नव रंग सृजनों में समीक्षा के नए आयाम और नए पाठ निर्माण के लिए पुनः धन्यवाद।

राजस्थान के सवाईमाधोपुर ग्राम गढ़ में आपके द्वारा हमारे नाटक ‘टेढ़ा दर्पण’ पर आपकी समीक्षा का मुकेश चतुर्वेदी जे के द्वारा प्राप्त करना हमेशा याद रहेगा। जो रंग-जीवन में नए सिलसिलों का सेतु बना।

कलमकार अजित राय को जन्मदिन की हार्दिक शुभेच्छा।

जोहार

राजकुमार रजक

संभावनाओं को अंगीकार करती एक पाती….आत्मार्पित

“चित्त जहाँ भयशून्य, उच्च मस्तक नित रहता, जहाँ ज्ञान उन्मुक्त, न सीमा-बंधन सहता, जहाँ भवन की भित्ति रात-दिन निज आँगन में, जग का करे न खण्ड, प्रेम हो प्रतिजन-मन में, जहाँ सत्य की गहराई से निकले वाणी, शब्द-शब्द में रहे सत्य की अमिट निशानी, देश-देश, दिशि-दिशि धाए कर्मों की धारा, जहाँ पूर्णता में सीमित खो जाए किनारा, रूढ़ि-रीतियों की विभिन्न रे मरू- मालाएँ, जहाँ विचारों के प्रवाह को निगल न जाएँ…”-रबीन्द्र नाथ टैगोर

अभिप्रेरणा

हम, भारत के कला कर्मी, देश की सिराओं में अथक रूप से प्रवाहित लोकतन्त्र को पुलकित करते रहे हैं। यह पत्र उदासीनता के विलाप के बरक्स संभावनाओं के अंगीकार की गुहार है। भीषण यथार्थ के अंतरमन में कौंध रहे योजनाओं को स्पंदित करने इसे आत्मार्पित करने का प्रत्यक्ष संवाद है।

लोकतन्त्र में कला जितनी फलती -फूलती है उतनी ही लोकतन्त्र की मानवीय जड़ें मजबूत होती हैं। लोकतन्त्र की कल्पना और रचना समृद्ध हो रही होती है। कलाओं की उपेक्षा आस्तित्विक विघटन का रूप धारण करती हैं। कलाओं का ह्रास जीवन का त्रास बनने लगती हैं कल्पनाओं के स्थान पर रूढ़ियाँ जड़ होने लगती हैं अपने आवेग-संवेग की दक्षताओं को छोड़ किसी मशीनरी में कठपुतलीयां होने लगती हैं और सब कुछ कागज का नक्शा हो उठता है। यह एक भीषण स्थिति है जो धीरे-धीरे भिनति है। विनोबा भावे ने एक सभा में कहा था की लोकतन्त्र का स्वामी लोक है हम जन हैं लेकिन हम स्वामी तभी हैं जब हम एक हैं एक साथ हैं।  एक हो हम सेवक चुनते हैं।  कलाओं की अनुपस्थिति से हमारा आस्तित्विक सेतु ध्वस्त होने लगता है। यहाँ यह सब कोई नया सिद्धांत रखने के लिए हम उत्सुक नहीं हैं वरन मुलगामी प्रत्याशा है। इसे बार -बार हम अगर अपनी स्मृतियों की दिशा में ले चलेंगे तो संभावनाओं को आत्मार्पित करने के साहस को उर्वरा कर सकेंगे। संवादों की संक्रियाओं को सजा पाएंगे। “मैं आपकी बात से कितना भी असहमत क्यों ना हूँ, आपके विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा।” वाल्टेयर

 वाल्टेयर की इस उक्ति की भी एक उंगली थामे संभावनाओं के सहारे आगे के संवाद को संचालित करते हैं।

बचीखूची संभावनाओं को महामारी ने हाशिये पर टांग दिया है। कोविड के चलते जिस तरह की सतर्क पाबंदियों को लागू किया गया है। इसमें समूहन में किए जाने वाले समस्त कार्य भीषण रूप से प्रभावित हुए हैं। पिछले वर्ष जब इस महामारी ने अपना दस्तक पेश किया था और तमाम सांप्रदायिक क़हक़हों ने हमारे कान की कनदीवारों को भरसक कर्कट करने का काम किया था।  यह दौर था जब हमें महामारी की बन रही स्मृतियों को तुरंत स्थगित करना था। नए रास्ते खोजने थे। यह वक़्त था फिर से नया बुनने का पर हम अपने दोनों पैरों से उसी अतीत की महागाथा में लिप्त थे। कई चित्र कोविड महामारी के शीर्षक से हमारी आत्माओं के साथ चिपट गए हैं। इन स्मृतियों को, इन अनुभवों को बदलने के बजाय इसे सुनियोजित रूप से ढक दिया गया। क्योंकि कलाओं का ह्रास होता रहा है जिससे रचनाएँ और कल्पनाएँ  तिलांजीत रही हैं। लोकतन्त्र की कल्पना और रचना में लोक का होना ज़रूरी है और लोक के सिराओं में कला का होना ज़रूरी है।

अब दूसरी लहर है इस बार भी महामारी का सामना करने के लिए जो ज़रूरी एहतियात हैं भले ही चरम पार कर जाने के ब्नाद लागू हुए हों। सामाजिक जीवन संकट में आ खड़ा हुआ है। तमाम प्रकार के ऑनलाइन कार्यक्रमों में तमाम कार्य कमोबेश सुचारु हो गए लेकिन समूहन के कार्य भीषण रूप से प्रभावित हुए हैं। इस बार फिर से इस भयानक वबा ने उन दृश्यों को भी उजागर कर दिया है जो नेपथ्य में मृत्युगीत गुनगुना रहे थे।  सब खुलासा हो गया है। जब आखिरी उम्मीद भी खूंटी पर टंगी  हुई दिखे, जब हमारा प्रत्येक क्षण जीवन का संकट बन गले पर आ बैठे, तब बहुत सी चीज़ें ज़रूरी हो जाती हैं। जिनमें एक सबसे ज़रूरी है एक दूसरे का संबल बनना। इस बार की स्मृतियाँ केवल हमारी आत्माओं से चिपटी नहीं हैं बल्कि हमारे अतल अंतस में घर कर गईं हैं। जिसने एक अजीब बेबसी का आभास दिया है। इस स्थिति में अस्पताल, दवाईखाना और शमशान के चक्कर में, इन तीनों के मध्य जो सबसे बड़ी बात थी लोक का जैसे तैसे स्वयं ही साधन बन जाना।

 महामारी के भीषण विराट चेहरे  के सामने वो हर एक चीज़ धराशायी हो रही थी जिसमें हमारे व्यक्तिगत जीवन की रोज़मर्रा टूट रही थी। पिछले वर्ष से अब तक करोड़ों लोगों पर जो बीती है उस आपबीती से सभी बखूबी वाकिफ़ हैं। जिसने हर तरह से हर कुनबे के श्रमजीवी की कमर तोड़ी हैं। इस क्रम में हम कलाकर्मी भी उसी श्रमजीवी की तरह ही टूटे हुए हैं।  जो वर्तमान है वह इतिहास के गर्भ में पनप रहा होता है। आज़ादी के बाद 1954 में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना और आगे चल कर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संकृति मंत्रालय की स्थापना। संस्कृति मंत्रालय के मुख्य मिशन रहे हैं कला-संस्कृतियों का संरक्षण, प्रोत्साहन और विस्तारण हैं। इन मिशन के तहत  यह निम्न कार्य बिन्दु हैं।

  1. Maintenance and conservation of heritage, historic sites and ancient monuments
  2. Administration of libraries
  3. Promotion of literary, visual and performing arts
  4. Observation of centenaries and anniversaries of important national personalities and events
  5. Promotion of institutions and organizations of Buddhist and Tibetan studies
  6. Promotion of institutional and individual non-official initiatives in the fields of art and culture
  7. Entering into cultural agreements with foreign countries.
  8. The functional spectrum of the Department ranges from creating cultural awareness from the grass root level to the international cultural exchange level.

इन बिन्दुओं में अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं की तरह बिन्दु 3 एवं 6 भी हैं। इन बिन्दुओं यहाँ पर ही केन्द्रित कर संवाद करने का प्रयत्न किया जाएगा। कला के सभी क्षेत्रों में इस वक़्त संवाद बहुत ही ज़रूरी हैं। अतः प्रदर्शन कलाओं में हम यहाँ केवल रंगमंच पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे।  इससे पहले यह भी जान लें की, वर्तमान यूनियन बजट में संकृति मंत्रालय द्वारा वर्ष 2021-22 में लगभग 15 प्रतिशत का बजट पिछले वर्ष की तुलना में कट किया है। कई वर्षों से चल रहे प्रोडक्शन ग्रांट को बंद कर दिया है और कलाओं को संरक्षित करने के उद्देश्य को हाशिये पर ला खड़ा किया है।  

कला और संस्कृति सामाजिक है प्राकृतिक नहीं जिसे प्रकृति स्वयं पोषित कर लेगी। प्रकृति रात बनाती है और कलावान प्रदीप बनाता है। कला का संरक्ष्ण, इसका विस्तार कलाकारों के जीवित रहने से है।  तभी कलाकार की कलाकारीयत का संरक्षण हो सकेगा इसका संवर्धन हो सकेगा।  समूहन कलाओं को महामारी ने दो धक्के दिये हैं एक की इन कलाओं को समूह में  आने से महामारी का खतरा और इसकी वजह से लगभग कई वर्षों तक दर्शकों की प्रत्यक्षता का प्रस्तुतियों में अभाव बना रहेगा। रंगकर्मी क्या करे एक तो प्रस्तुति थी उसके पास जिससे वो स्वयं अपनी जिजीविषा का जुगाड़ करता रहा है और दूसरा है उसका प्रशिक्षक होना। यह दोनों ही बाधित हैं प्रभावित हैं। अब कुल मिला कर बचा ऑनलाइन मंच। इस ऑनलाइन मंच की उपयोगिता कैसे की जाये इस पर अभी ऑनलाइन लिटरेसी का आपसी लेन  देन जारी है पर इसकी व्यापकता में संकट है। हो सकता है कल को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म में कुछ ऐसा हो जो एक विकल्प बन सके पर फिलहाल इसे एक सुहावना -लुभावना सपना समझ कर किसी खिड़की पर इसे बैठा कर खोजबीन जारी रखना चाहिए। यानि के इतनी मशक्कत के बाद भी हाथ लगा कयास बस और कुछ नहीं। दुनिया के माथे पर लंबे इतिहास में हुए हमारे अनुभवों के स्मृति चिन्ह शिलालेख की तरह मौजूद है कि किसी भी प्रकार की महामारी एक लंबा वक़्त लेती है अपनी गति को स्थगित करने के लिए, पर अभी तो मात्र साल ही बिता है। अभी लंबी भीषण यात्रा बाकी है। महामारी के ग्रास से बचने पर भुखमरी सामने खड़ी होगी। जिसका विकराल रूप अपना काम करने लगी है। यह केवल डर नहीं संकट का आभास है। काश कि ऐसा हमें और हमारे मंत्रालयों को भी ये आभास पहले हुआ होता और  वो बजट काटने के बजाय इसे बढ़ाते। इस बजट में नयी योजनाओं को शामिल करते। प्रोडक्शन ग्रांट की तरह स्पष्ट जहां कम से कम इंटरव्यू  का मिनट्स जारी होता रहा है। रेपेटरी ग्रांट का भी मिनट्स जारी होता रहा है। लेकिन संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर सेवा भोज योजना का कोई भी जारी मिनट्स नहीं। अगर कोई शॉर्टलिस्ट हैं तो  वो करोड़ो रुपये कैसे और कौन से संस्थानों को गए, वर्ष 2018 से। उसका लेखाजोखा कौन कहाँ प्रसारित करता है। क्या हम यह पूछने का प्रयास कर पाये? क्या हम प्रयास कर पाये कि छात्रवृति, जूनियर और सीनियर फ़ेलोशिप की बकाया किश्त अभी तक क्यों नहीं आई? क्या हम यह सवाल कर सके की रिपेटरी ग्रांट क्यों रिलीज़ नहीं किया जा रहा है? प्रोडक्शन ग्रांट बंद करने की स्क्रुटनी क्यों नहीं की गयी? इस ग्रांट के बंद होने से संस्कृति मंत्रालय का कौन सा उद्देश्य प्रभावित हुआ? इस ग्रांट के स्थान पर सेवा भोज योजना कैसे पनपा इसके पीछे का अजेंडा क्या है यह सब सवाल बड़े भव्य सवालों के पीछे खड़े रहते हैं। यह सवाल बड़े भव्य मंत्रालयों में ढके रहते हैं। ये तो ऐसा ही हुआ की अनाज गोदाम में लबालब है पर गोदाम के बाहर नदारद है। राज्यों में केंद्र में संस्कृति मंत्रालय हैं कई अकादमी गठित हैं, नाटय विद्यालय है , जोनल सेंटर है। ऐसे मुश्किल समय मे इन संस्थानों का क्या दायित्व होना चाहिए था? क्या संस्थानो ने अपने दायित्व का निर्वहन किया? इस महामारी के दौरान क्या इन मंत्रालयों को, अकादमियों को, ज़ोनल सेंटरों को साँप सूंघ गया? एक पुरानी  कहावत है कि विपत्ति  में ही चरित्र का खुलासा होता है। सब खुलासा हो गया है अब भारत के कलाकारों को कम से कम एकजुट होना ही होगा लोकतन्त्र में जनता ही स्वामी होती है इसका विस्तारण करना ही होगा।

कुछ प्रतिष्ठित कलाकार / रंगकर्मी कहते हैं कि यह कोई समस्या नहीं आप मंत्रालयों की ग्रांट पर क्यों निर्भर हैं। आप को स्व: निर्भर होना चाहिए था। यह बात भी स्वनिर्भरता के संदर्भ में सटीक जा बैठती है पर यहीं से दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि जहां की शिक्षा ही स्व:निर्भरता नहीं दे पाती कई करोड़ पढे लिखे युवा बेरोजगार हैं। अब तो यह आंकड़ा और  भी बढ़ा है। जब मुख्य शिक्षा में ही यह दोष मौजूद हैं तो कला संस्थान इससे अछूते नहीं हैं। अतः इस शिक्षा की मौजूदा हालात में बेहतर क्या हो सकता है कि कई शिक्षा नीतियों में इसकी झलक दिखती है पर शैक्षणिक संस्थाएं इनकी खाना पूर्ति कर आगे निकाल जाती हैं। वर्ष दर वर्ष का भागंभाग। इसी  तरह कला संस्थानों में भी हालात है अधिकत्तर संस्थानों में एक -दो को छोड़ कर। शिक्षण संस्थाने ईंट भट्टा नहीं यह शिक्षण संस्थानों कभी समझना पड़ेगा। स्कूल, कॉलेजों कि कोई जात नहीं होती, वो केवल शिक्षा के सर्जक हैं जहां इंसान होने के संभावनाओं के मार्ग खुलते हैं जहां से स्व: निर्भर होने कि धारा प्रवाहित होती है लेकीन इसके स्वभाव में परनिर्भरता का ही चलन चलाया जाता है। सैकड़ों कलाकारों को रंगकर्मियों को यह कला / नाट्य कला संस्थान प्रशिक्षित करते हैं पर उनके भविष्य की कोई योजना नहीं अब तो यह प्रशिक्षण बहुत बार आउटडेटेड लगने लगा है कि वर्तमान समय के साथ ताल ही नहीं बैठा पा रहा। यहाँ यह सब सवाल इल्हामी नाश्ते के लिए नहीं वरन फिर से इस खुलासे के बाद व्यवस्थित करने के लिए हैं। यह पाती आभास देने के लिए है यह पाती आगाज करने के लिए है। संस्कृति मंत्रालयों,  अकादमियों के नीति निर्माताओं को सख्त ज़रूरत हैं कि वो इन नीतियों को रिविजिट करें रिआर्टीकुलेट करें ताकि सांस्कृतिक मंत्रालयों के मिशन में उपस्थित कार्यक्रमों में कलाकारों को शामिल किया जा सके।

इन तमाम शैक्षणिक चुनौतियों के मध्य इस महामारी ने रंगमंच संस्थानों में पढ़ रहे विद्यार्थियों के सामने महमारी ने एक और सवाल खड़ा कर दिया है कि समूहन कला कि शिक्षा – प्रशिक्षा में जिस अभ्यास की, जिस प्रायोगिक अनुभवों से उनकी दक्षताओं का विकास करना था वो पूर्ण रूप से बाधित हो रहा है? हाँ, भविष्य के गर्भ में समूहन कला कर्मियों के लिए खास कर रंगमंच शिक्षार्थियों के  लिए भी उनकी संचालित डिग्रीयाँ एक मरीचिका की तरह ही होगी। ज्ञात आधुनिक मानव इतिहास में यह एक भयावह ऐतिहासिक घटना है। जो रंगमंच के पाठ्यक्रम को मुह चिढ़ाती है। इन शिक्षार्थियों के लिए इन भव्य और रूपाली संस्थानों के पास क्या है? इसे टालना बहुत ही आसान हैं पर झेलना उतना ही मुश्किल। इस विपत्ति ने सभी चेहरों को उजागर कर दिया है। रंगशीर्ष पर विलाप करती भविष्य की अंतर्ध्वनी अपना आर्तनाद गा रही है। सुनो! अब हो उठो! स्वयं समय बन उठो! और पुछो आत्मनिर्भरता का कथ्य अब कब रचेंगे, संस्थानों में भविष्य की मरीचिका के रूपाली जाल से कब मुक्ति पाएंगे। अब देर भली नहीं।

कला और कला संरक्षण के मध्य एक सेतु बनाने की ज़रूरत  है। कलाकार के रोज़नामचा में कला विचरण करती है ज़िंदा रहती है  संवर्धित होती है संरक्षित होती है विस्तारित होती है। लोक से लोकतन्त्र गढ़ता है लोकतन्त्र के हृदय का इसकी सिराओं में गुंथित कलाये संबल बनती है। लोकतन्त्र को पोषित करती हैं। लोकतन्त्र के संरक्षण और संवर्धन में कलाकारों का बचना कलाओं का बचना है। कलाओं का बचना लोकतन्त्र में कल्पना और रचना का बचना है। कलाएं अस्तित्विक सेतु का संयोजन अपने हृदय में सुनियोजित किए हुए हैं।

वर्तमान परिस्थिति के दौरान लोकतन्त्र में कला और कलाकारों की जिजीविषा के सवालों को खड़ा करता यह प्रस्तावित संवाद शृंखला है। कलाकार और कला संरक्षण योजनाओं के मध्य जो खाई है उसे पाटने की एक शुरुआत है। इस आरंभ में दो प्रमुख सवाल सभी आगंतुक वक्ताओं को प्रस्तावित रहेंगे कि इस खाई को पाटने के लिए दूरगामी प्रक्रियाएँ क्या हो सकती हैं? दूसरा सवाल होगा कि तात्क्षणिक कौन सी योजनाएँ होंगी जो कलाकार को बचा सकेंगी इस वबा संकट से उबरने के लिए। आइये समकालीन हो उठें भविष्य के संयोजन के लिए….।

जो रंगमंच, साहित्य, कला अपने समय के बारे में कुछ नहीं कहती वो अप्रासंगिक है…दारियो फो

श्रोत

संस्कृति मंत्रालय बजट

https://www.thehindu.com/business/budget/union-budget-2021-culture-ministry-budget-cut-by-nearly-15/article33721325.ece?__cf_chl_captcha_tk__=c7679de755dc5c27cb00d90d347dbe41ea445520-1619379490-0-AUv87kMIhfYggVwCU7b9Af0gOyMs-g__gmvSZgPcpIUb20kceesmhol9lQAr0kbYHDPMNgSrCtjDO48T6e23yp-76DdXuc6anFDL5mbcLL2Z3KlbGyKbNmKTEk2T890-1whOh-8l5uLdJWyXe6ES8S5VgJc11Yjxk0SLfT4LG0DNpK9JmGrNjvJouX6NE-nGzqc8iPWz-UqFWtUPzv5jvmaKqyL2G4cy44Pp2XdN8R3HTALLPEOG87FbchYNSspcGeriewl5wnaXIBa6taiZXyKyzXb33WV1KLqjdUylvlIRt_mskPEYbUcMhaxD5Ude45mAqoEJRFUA6mouy8gO0b-HxJFfEOM3zfdTVTHcr63eF4fxiyOeSKUHnBkgcBOPZQvn_qMAEtev8ziqeKkyOBqcEjAF_NTrbKeYykHNFqYc2l1V76X4xnXuchDwUcbmWBmG80yKC1j_MdxliVX7JU46W9J2tOX_CGn5KM4IFLpPTQJcmszSC2nkJeMZDLD0h3ekDNWdCzPYcPdI1N1WHGs6uEToLXa8xz1iqtpz_HR25MzTTojsnIBdDDzdq_hJk6uZhDnqRbH9u01rW8abgu1UNYgzeBDPGMCwlIR_0kHJoQGGQXdU52RLV9s67F5BWLTQhOb-mcbUdRWs9ETBwJNXwystZhDmn4n8QFrChBddkjluxgPrcuvjImgLsbFJ6UFzp9plIolYQ_7ySyQVQNo#

https://www.indiaculture.nic.in/mission-statement

संयोजन

Posted: March 17, 2022 in Uncategorized

संयोजन

संभावनाएं अमूर्त देश की नदियां हैं। जो भविष्य के झूलों में हिलकोरे खाती है और हमारे सृजन के परिश्रम से मूर्त होने लगती है। एक रूप लेने लगती है, संवाद करने लगती हैं। कला गढ़ने लगती हैं। अमूर्त से मूर्त के मध्य ऊर्जा की इस गति की ज़रूरत होती है। यह ऊर्जा और गति के संयोजन से संयोग बन उठता है। और यह संयोग जीवन बन जाता है। यह संभावनाएँ कला की तरह हैं…जीवन में आस की भांति … राजकुमार