संभावनाओं को अंगीकार करती एक पाती….आत्मार्पित
“चित्त जहाँ भयशून्य, उच्च मस्तक नित रहता, जहाँ ज्ञान उन्मुक्त, न सीमा-बंधन सहता, जहाँ भवन की भित्ति रात-दिन निज आँगन में, जग का करे न खण्ड, प्रेम हो प्रतिजन-मन में, जहाँ सत्य की गहराई से निकले वाणी, शब्द-शब्द में रहे सत्य की अमिट निशानी, देश-देश, दिशि-दिशि धाए कर्मों की धारा, जहाँ पूर्णता में सीमित खो जाए किनारा, रूढ़ि-रीतियों की विभिन्न रे मरू- मालाएँ, जहाँ विचारों के प्रवाह को निगल न जाएँ…”-रबीन्द्र नाथ टैगोर
अभिप्रेरणा
हम, भारत के कला कर्मी, देश की सिराओं में अथक रूप से प्रवाहित लोकतन्त्र को पुलकित करते रहे हैं। यह पत्र उदासीनता के विलाप के बरक्स संभावनाओं के अंगीकार की गुहार है। भीषण यथार्थ के अंतरमन में कौंध रहे योजनाओं को स्पंदित करने इसे आत्मार्पित करने का प्रत्यक्ष संवाद है।
लोकतन्त्र में कला जितनी फलती -फूलती है उतनी ही लोकतन्त्र की मानवीय जड़ें मजबूत होती हैं। लोकतन्त्र की कल्पना और रचना समृद्ध हो रही होती है। कलाओं की उपेक्षा आस्तित्विक विघटन का रूप धारण करती हैं। कलाओं का ह्रास जीवन का त्रास बनने लगती हैं कल्पनाओं के स्थान पर रूढ़ियाँ जड़ होने लगती हैं अपने आवेग-संवेग की दक्षताओं को छोड़ किसी मशीनरी में कठपुतलीयां होने लगती हैं और सब कुछ कागज का नक्शा हो उठता है। यह एक भीषण स्थिति है जो धीरे-धीरे भिनति है। विनोबा भावे ने एक सभा में कहा था की लोकतन्त्र का स्वामी लोक है हम जन हैं लेकिन हम स्वामी तभी हैं जब हम एक हैं एक साथ हैं। एक हो हम सेवक चुनते हैं। कलाओं की अनुपस्थिति से हमारा आस्तित्विक सेतु ध्वस्त होने लगता है। यहाँ यह सब कोई नया सिद्धांत रखने के लिए हम उत्सुक नहीं हैं वरन मुलगामी प्रत्याशा है। इसे बार -बार हम अगर अपनी स्मृतियों की दिशा में ले चलेंगे तो संभावनाओं को आत्मार्पित करने के साहस को उर्वरा कर सकेंगे। संवादों की संक्रियाओं को सजा पाएंगे। “मैं आपकी बात से कितना भी असहमत क्यों ना हूँ, आपके विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा।” वाल्टेयर
वाल्टेयर की इस उक्ति की भी एक उंगली थामे संभावनाओं के सहारे आगे के संवाद को संचालित करते हैं।
बचीखूची संभावनाओं को महामारी ने हाशिये पर टांग दिया है। कोविड के चलते जिस तरह की सतर्क पाबंदियों को लागू किया गया है। इसमें समूहन में किए जाने वाले समस्त कार्य भीषण रूप से प्रभावित हुए हैं। पिछले वर्ष जब इस महामारी ने अपना दस्तक पेश किया था और तमाम सांप्रदायिक क़हक़हों ने हमारे कान की कनदीवारों को भरसक कर्कट करने का काम किया था। यह दौर था जब हमें महामारी की बन रही स्मृतियों को तुरंत स्थगित करना था। नए रास्ते खोजने थे। यह वक़्त था फिर से नया बुनने का पर हम अपने दोनों पैरों से उसी अतीत की महागाथा में लिप्त थे। कई चित्र कोविड महामारी के शीर्षक से हमारी आत्माओं के साथ चिपट गए हैं। इन स्मृतियों को, इन अनुभवों को बदलने के बजाय इसे सुनियोजित रूप से ढक दिया गया। क्योंकि कलाओं का ह्रास होता रहा है जिससे रचनाएँ और कल्पनाएँ तिलांजीत रही हैं। लोकतन्त्र की कल्पना और रचना में लोक का होना ज़रूरी है और लोक के सिराओं में कला का होना ज़रूरी है।
अब दूसरी लहर है इस बार भी महामारी का सामना करने के लिए जो ज़रूरी एहतियात हैं भले ही चरम पार कर जाने के ब्नाद लागू हुए हों। सामाजिक जीवन संकट में आ खड़ा हुआ है। तमाम प्रकार के ऑनलाइन कार्यक्रमों में तमाम कार्य कमोबेश सुचारु हो गए लेकिन समूहन के कार्य भीषण रूप से प्रभावित हुए हैं। इस बार फिर से इस भयानक वबा ने उन दृश्यों को भी उजागर कर दिया है जो नेपथ्य में मृत्युगीत गुनगुना रहे थे। सब खुलासा हो गया है। जब आखिरी उम्मीद भी खूंटी पर टंगी हुई दिखे, जब हमारा प्रत्येक क्षण जीवन का संकट बन गले पर आ बैठे, तब बहुत सी चीज़ें ज़रूरी हो जाती हैं। जिनमें एक सबसे ज़रूरी है एक दूसरे का संबल बनना। इस बार की स्मृतियाँ केवल हमारी आत्माओं से चिपटी नहीं हैं बल्कि हमारे अतल अंतस में घर कर गईं हैं। जिसने एक अजीब बेबसी का आभास दिया है। इस स्थिति में अस्पताल, दवाईखाना और शमशान के चक्कर में, इन तीनों के मध्य जो सबसे बड़ी बात थी लोक का जैसे तैसे स्वयं ही साधन बन जाना।
महामारी के भीषण विराट चेहरे के सामने वो हर एक चीज़ धराशायी हो रही थी जिसमें हमारे व्यक्तिगत जीवन की रोज़मर्रा टूट रही थी। पिछले वर्ष से अब तक करोड़ों लोगों पर जो बीती है उस आपबीती से सभी बखूबी वाकिफ़ हैं। जिसने हर तरह से हर कुनबे के श्रमजीवी की कमर तोड़ी हैं। इस क्रम में हम कलाकर्मी भी उसी श्रमजीवी की तरह ही टूटे हुए हैं। जो वर्तमान है वह इतिहास के गर्भ में पनप रहा होता है। आज़ादी के बाद 1954 में संगीत नाटक अकादमी की स्थापना और आगे चल कर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संकृति मंत्रालय की स्थापना। संस्कृति मंत्रालय के मुख्य मिशन रहे हैं कला-संस्कृतियों का संरक्षण, प्रोत्साहन और विस्तारण हैं। इन मिशन के तहत यह निम्न कार्य बिन्दु हैं।
- Maintenance and conservation of heritage, historic sites and ancient monuments
- Administration of libraries
- Promotion of literary, visual and performing arts
- Observation of centenaries and anniversaries of important national personalities and events
- Promotion of institutions and organizations of Buddhist and Tibetan studies
- Promotion of institutional and individual non-official initiatives in the fields of art and culture
- Entering into cultural agreements with foreign countries.
- The functional spectrum of the Department ranges from creating cultural awareness from the grass root level to the international cultural exchange level.
इन बिन्दुओं में अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं की तरह बिन्दु 3 एवं 6 भी हैं। इन बिन्दुओं यहाँ पर ही केन्द्रित कर संवाद करने का प्रयत्न किया जाएगा। कला के सभी क्षेत्रों में इस वक़्त संवाद बहुत ही ज़रूरी हैं। अतः प्रदर्शन कलाओं में हम यहाँ केवल रंगमंच पर ज़्यादा ध्यान केन्द्रित करना चाहेंगे। इससे पहले यह भी जान लें की, वर्तमान यूनियन बजट में संकृति मंत्रालय द्वारा वर्ष 2021-22 में लगभग 15 प्रतिशत का बजट पिछले वर्ष की तुलना में कट किया है। कई वर्षों से चल रहे प्रोडक्शन ग्रांट को बंद कर दिया है और कलाओं को संरक्षित करने के उद्देश्य को हाशिये पर ला खड़ा किया है।
कला और संस्कृति सामाजिक है प्राकृतिक नहीं जिसे प्रकृति स्वयं पोषित कर लेगी। प्रकृति रात बनाती है और कलावान प्रदीप बनाता है। कला का संरक्ष्ण, इसका विस्तार कलाकारों के जीवित रहने से है। तभी कलाकार की कलाकारीयत का संरक्षण हो सकेगा इसका संवर्धन हो सकेगा। समूहन कलाओं को महामारी ने दो धक्के दिये हैं एक की इन कलाओं को समूह में आने से महामारी का खतरा और इसकी वजह से लगभग कई वर्षों तक दर्शकों की प्रत्यक्षता का प्रस्तुतियों में अभाव बना रहेगा। रंगकर्मी क्या करे एक तो प्रस्तुति थी उसके पास जिससे वो स्वयं अपनी जिजीविषा का जुगाड़ करता रहा है और दूसरा है उसका प्रशिक्षक होना। यह दोनों ही बाधित हैं प्रभावित हैं। अब कुल मिला कर बचा ऑनलाइन मंच। इस ऑनलाइन मंच की उपयोगिता कैसे की जाये इस पर अभी ऑनलाइन लिटरेसी का आपसी लेन देन जारी है पर इसकी व्यापकता में संकट है। हो सकता है कल को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म में कुछ ऐसा हो जो एक विकल्प बन सके पर फिलहाल इसे एक सुहावना -लुभावना सपना समझ कर किसी खिड़की पर इसे बैठा कर खोजबीन जारी रखना चाहिए। यानि के इतनी मशक्कत के बाद भी हाथ लगा कयास बस और कुछ नहीं। दुनिया के माथे पर लंबे इतिहास में हुए हमारे अनुभवों के स्मृति चिन्ह शिलालेख की तरह मौजूद है कि किसी भी प्रकार की महामारी एक लंबा वक़्त लेती है अपनी गति को स्थगित करने के लिए, पर अभी तो मात्र साल ही बिता है। अभी लंबी भीषण यात्रा बाकी है। महामारी के ग्रास से बचने पर भुखमरी सामने खड़ी होगी। जिसका विकराल रूप अपना काम करने लगी है। यह केवल डर नहीं संकट का आभास है। काश कि ऐसा हमें और हमारे मंत्रालयों को भी ये आभास पहले हुआ होता और वो बजट काटने के बजाय इसे बढ़ाते। इस बजट में नयी योजनाओं को शामिल करते। प्रोडक्शन ग्रांट की तरह स्पष्ट जहां कम से कम इंटरव्यू का मिनट्स जारी होता रहा है। रेपेटरी ग्रांट का भी मिनट्स जारी होता रहा है। लेकिन संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर सेवा भोज योजना का कोई भी जारी मिनट्स नहीं। अगर कोई शॉर्टलिस्ट हैं तो वो करोड़ो रुपये कैसे और कौन से संस्थानों को गए, वर्ष 2018 से। उसका लेखाजोखा कौन कहाँ प्रसारित करता है। क्या हम यह पूछने का प्रयास कर पाये? क्या हम प्रयास कर पाये कि छात्रवृति, जूनियर और सीनियर फ़ेलोशिप की बकाया किश्त अभी तक क्यों नहीं आई? क्या हम यह सवाल कर सके की रिपेटरी ग्रांट क्यों रिलीज़ नहीं किया जा रहा है? प्रोडक्शन ग्रांट बंद करने की स्क्रुटनी क्यों नहीं की गयी? इस ग्रांट के बंद होने से संस्कृति मंत्रालय का कौन सा उद्देश्य प्रभावित हुआ? इस ग्रांट के स्थान पर सेवा भोज योजना कैसे पनपा इसके पीछे का अजेंडा क्या है यह सब सवाल बड़े भव्य सवालों के पीछे खड़े रहते हैं। यह सवाल बड़े भव्य मंत्रालयों में ढके रहते हैं। ये तो ऐसा ही हुआ की अनाज गोदाम में लबालब है पर गोदाम के बाहर नदारद है। राज्यों में केंद्र में संस्कृति मंत्रालय हैं कई अकादमी गठित हैं, नाटय विद्यालय है , जोनल सेंटर है। ऐसे मुश्किल समय मे इन संस्थानों का क्या दायित्व होना चाहिए था? क्या संस्थानो ने अपने दायित्व का निर्वहन किया? इस महामारी के दौरान क्या इन मंत्रालयों को, अकादमियों को, ज़ोनल सेंटरों को साँप सूंघ गया? एक पुरानी कहावत है कि विपत्ति में ही चरित्र का खुलासा होता है। सब खुलासा हो गया है अब भारत के कलाकारों को कम से कम एकजुट होना ही होगा लोकतन्त्र में जनता ही स्वामी होती है इसका विस्तारण करना ही होगा।
कुछ प्रतिष्ठित कलाकार / रंगकर्मी कहते हैं कि यह कोई समस्या नहीं आप मंत्रालयों की ग्रांट पर क्यों निर्भर हैं। आप को स्व: निर्भर होना चाहिए था। यह बात भी स्वनिर्भरता के संदर्भ में सटीक जा बैठती है पर यहीं से दूसरा सवाल भी खड़ा होता है कि जहां की शिक्षा ही स्व:निर्भरता नहीं दे पाती कई करोड़ पढे लिखे युवा बेरोजगार हैं। अब तो यह आंकड़ा और भी बढ़ा है। जब मुख्य शिक्षा में ही यह दोष मौजूद हैं तो कला संस्थान इससे अछूते नहीं हैं। अतः इस शिक्षा की मौजूदा हालात में बेहतर क्या हो सकता है कि कई शिक्षा नीतियों में इसकी झलक दिखती है पर शैक्षणिक संस्थाएं इनकी खाना पूर्ति कर आगे निकाल जाती हैं। वर्ष दर वर्ष का भागंभाग। इसी तरह कला संस्थानों में भी हालात है अधिकत्तर संस्थानों में एक -दो को छोड़ कर। शिक्षण संस्थाने ईंट भट्टा नहीं यह शिक्षण संस्थानों कभी समझना पड़ेगा। स्कूल, कॉलेजों कि कोई जात नहीं होती, वो केवल शिक्षा के सर्जक हैं जहां इंसान होने के संभावनाओं के मार्ग खुलते हैं जहां से स्व: निर्भर होने कि धारा प्रवाहित होती है लेकीन इसके स्वभाव में परनिर्भरता का ही चलन चलाया जाता है। सैकड़ों कलाकारों को रंगकर्मियों को यह कला / नाट्य कला संस्थान प्रशिक्षित करते हैं पर उनके भविष्य की कोई योजना नहीं अब तो यह प्रशिक्षण बहुत बार आउटडेटेड लगने लगा है कि वर्तमान समय के साथ ताल ही नहीं बैठा पा रहा। यहाँ यह सब सवाल इल्हामी नाश्ते के लिए नहीं वरन फिर से इस खुलासे के बाद व्यवस्थित करने के लिए हैं। यह पाती आभास देने के लिए है यह पाती आगाज करने के लिए है। संस्कृति मंत्रालयों, अकादमियों के नीति निर्माताओं को सख्त ज़रूरत हैं कि वो इन नीतियों को रिविजिट करें रिआर्टीकुलेट करें ताकि सांस्कृतिक मंत्रालयों के मिशन में उपस्थित कार्यक्रमों में कलाकारों को शामिल किया जा सके।
इन तमाम शैक्षणिक चुनौतियों के मध्य इस महामारी ने रंगमंच संस्थानों में पढ़ रहे विद्यार्थियों के सामने महमारी ने एक और सवाल खड़ा कर दिया है कि समूहन कला कि शिक्षा – प्रशिक्षा में जिस अभ्यास की, जिस प्रायोगिक अनुभवों से उनकी दक्षताओं का विकास करना था वो पूर्ण रूप से बाधित हो रहा है? हाँ, भविष्य के गर्भ में समूहन कला कर्मियों के लिए खास कर रंगमंच शिक्षार्थियों के लिए भी उनकी संचालित डिग्रीयाँ एक मरीचिका की तरह ही होगी। ज्ञात आधुनिक मानव इतिहास में यह एक भयावह ऐतिहासिक घटना है। जो रंगमंच के पाठ्यक्रम को मुह चिढ़ाती है। इन शिक्षार्थियों के लिए इन भव्य और रूपाली संस्थानों के पास क्या है? इसे टालना बहुत ही आसान हैं पर झेलना उतना ही मुश्किल। इस विपत्ति ने सभी चेहरों को उजागर कर दिया है। रंगशीर्ष पर विलाप करती भविष्य की अंतर्ध्वनी अपना आर्तनाद गा रही है। सुनो! अब हो उठो! स्वयं समय बन उठो! और पुछो आत्मनिर्भरता का कथ्य अब कब रचेंगे, संस्थानों में भविष्य की मरीचिका के रूपाली जाल से कब मुक्ति पाएंगे। अब देर भली नहीं।
कला और कला संरक्षण के मध्य एक सेतु बनाने की ज़रूरत है। कलाकार के रोज़नामचा में कला विचरण करती है ज़िंदा रहती है संवर्धित होती है संरक्षित होती है विस्तारित होती है। लोक से लोकतन्त्र गढ़ता है लोकतन्त्र के हृदय का इसकी सिराओं में गुंथित कलाये संबल बनती है। लोकतन्त्र को पोषित करती हैं। लोकतन्त्र के संरक्षण और संवर्धन में कलाकारों का बचना कलाओं का बचना है। कलाओं का बचना लोकतन्त्र में कल्पना और रचना का बचना है। कलाएं अस्तित्विक सेतु का संयोजन अपने हृदय में सुनियोजित किए हुए हैं।
वर्तमान परिस्थिति के दौरान लोकतन्त्र में कला और कलाकारों की जिजीविषा के सवालों को खड़ा करता यह प्रस्तावित संवाद शृंखला है। कलाकार और कला संरक्षण योजनाओं के मध्य जो खाई है उसे पाटने की एक शुरुआत है। इस आरंभ में दो प्रमुख सवाल सभी आगंतुक वक्ताओं को प्रस्तावित रहेंगे कि इस खाई को पाटने के लिए दूरगामी प्रक्रियाएँ क्या हो सकती हैं? दूसरा सवाल होगा कि तात्क्षणिक कौन सी योजनाएँ होंगी जो कलाकार को बचा सकेंगी इस वबा संकट से उबरने के लिए। आइये समकालीन हो उठें भविष्य के संयोजन के लिए….।
जो रंगमंच, साहित्य, कला अपने समय के बारे में कुछ नहीं कहती वो अप्रासंगिक है…दारियो फो
श्रोत
संस्कृति मंत्रालय बजट
https://www.thehindu.com/business/budget/union-budget-2021-culture-ministry-budget-cut-by-nearly-15/article33721325.ece?__cf_chl_captcha_tk__=c7679de755dc5c27cb00d90d347dbe41ea445520-1619379490-0-AUv87kMIhfYggVwCU7b9Af0gOyMs-g__gmvSZgPcpIUb20kceesmhol9lQAr0kbYHDPMNgSrCtjDO48T6e23yp-76DdXuc6anFDL5mbcLL2Z3KlbGyKbNmKTEk2T890-1whOh-8l5uLdJWyXe6ES8S5VgJc11Yjxk0SLfT4LG0DNpK9JmGrNjvJouX6NE-nGzqc8iPWz-UqFWtUPzv5jvmaKqyL2G4cy44Pp2XdN8R3HTALLPEOG87FbchYNSspcGeriewl5wnaXIBa6taiZXyKyzXb33WV1KLqjdUylvlIRt_mskPEYbUcMhaxD5Ude45mAqoEJRFUA6mouy8gO0b-HxJFfEOM3zfdTVTHcr63eF4fxiyOeSKUHnBkgcBOPZQvn_qMAEtev8ziqeKkyOBqcEjAF_NTrbKeYykHNFqYc2l1V76X4xnXuchDwUcbmWBmG80yKC1j_MdxliVX7JU46W9J2tOX_CGn5KM4IFLpPTQJcmszSC2nkJeMZDLD0h3ekDNWdCzPYcPdI1N1WHGs6uEToLXa8xz1iqtpz_HR25MzTTojsnIBdDDzdq_hJk6uZhDnqRbH9u01rW8abgu1UNYgzeBDPGMCwlIR_0kHJoQGGQXdU52RLV9s67F5BWLTQhOb-mcbUdRWs9ETBwJNXwystZhDmn4n8QFrChBddkjluxgPrcuvjImgLsbFJ6UFzp9plIolYQ_7ySyQVQNo#
https://www.indiaculture.nic.in/mission-statement