Archive for February, 2014

संगीत

Posted: February 7, 2014 in Uncategorized

जीवन संगीत को रचते हुए

जीवित शब्दों की तलाश में

मरुधरा में प्यासा भटक रहा हूँ ।

अब कोई संगीत द्वानी प्रतिस्फुटित होगी

जो अपने सपनों के गीत गाएगी ।

राजकुमार

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आर्थिक चौखट और विकास का दरवाज़ा

विकास मानव व्यवहार की एक शाश्वत प्रक्रिया है । जिसकी हमारी जरूरतों तथा मूल्यों के आधार पर सिंचाई होती रहती है एवं प्रत्येक सदी की अपने त्रासदियों से जूझते हुए आगे और आगे बढ़ती रहती है, अपने बहुमुख रूप को लेकर । जिसका एक जीता-जागता प्रमाण इस वर्तमान सदी के नगरीकरण प्रणाली तक आ पहुंचा है । नगरीकरण के इस विकसिया अंग में बाज़ारीकरण का अपना मज़बूत दबदबा है । विकास की गति तथा इसके प्रभाव को जाँचने –परखने तथा इसके प्रक्रिया में पहुँचने के लिए मैं “नगरीकरण और इसकी अर्थव्यवस्था” को परखते हुए । अपने विचार में विकास की गति , प्रक्रिया और अपनी परिभाषा का उभार कर रहा हूँ । इसके लिए कुछ दृश्य साझा करता हूँ ।  

मैं जिस स्कूल में प्री-प्राइमरी स्तर में पढ़ता था । वहीं कुछ ही दूरी पर चौराहे के दाहिने सड़क के किनारे जो मोची बैठता था । हम उसी से अपने फटे-पुराने चप्पल और जूते मरम्मत एवं पॉलिश करवाते थे । जब मैं अपर-प्राइमरी और सेकेन्डरी स्कूल में पढ़ता तो वहाँ स्कूल के बाहर छत वाले की दुकान लगती थी और बच्चे छोटे-छोटे झुंड बनाकर लंच ब्रेक में या छुट्टी होने पर उसकी चाट खाते थे ।

इस दृश्य के बाद से दो बार प्रधानमंत्री की छुट्टीयां बीत चुकी हैं और नाना हड़कंप मचा हुआ है अब तीसरी बार प्रधानमंत्री आने वाला है ।  

आज जब भी मैं अपने शहर में होता हूँ और उधर जाना होता है । तो दिखता है वही मोची वहीं बैठा है । वो आज भी जूते –चप्पलों की मरम्मत करता है अपनी स्वप्ना संगिनी फटी हुई काली छत्ती के नीचे । बस फ़र्क इतना है कि अब वो बहुत बूढ़ा हो चला है । अपनी अर्थव्यवस्था को मरम्मत करते-करते । एक फ़र्क और भी है । वो कहता है आजकल दिन में दो-चार ग्राहक आ जाते हैं मोलभाव करने का मुह उठाकर । पहले तो हम कुछ ग्राहकों का कम एक दिन बाद देते थे । कम के भीड़ के कारण । उस चाट वाले का क्या हुआ । वो तो चाट बनाते-बनाते चाट का चाटा खाते-खाते अब नहीं रहा पर अब उनका जवान बेटा चाट बेचता है कोने में पिता कि तस्वीर लगी ठेले पर और अपना बयान देता है “अब तो छात्र भूले भटके ही चाट कि दुकान पर आते हैं नहीं तो वे हमेशा सुपर मार्केट के रेस्टोरेन्ट में ही भीड़ लगते हैं सोच रहा हूँ, वहीं कोई नौकरी कर लूँ ।”

हाल के वर्ष में दो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों स्टैंडर्ड एण्ड पूअर्स तथा फिच ने भारत के क्रेडिट रेटिंग आउटटलुक को अव्मूल्यित किया तो सामने खुल कर आया कि भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रही है । विकास दर गिर गया है और महंगाई लगातार एक समस्या के रूप में खड़ी हो गई है ।

लेकिन सवाल इसी भीड़ में खो गया कि 8-9 फीसदी सालाना कि दर से बढ़ रही अर्थव्यवस्था में यह निराशा का माहौल कैसे आया और अगर ये बढ़ोत्तरी की गति भी थी तो अर्थव्यवस्था ग्रास रूट के छोटे-छोटे उद्यमों और सेवाओं पर इतनी स्थिरीता ।

यह मेरी निराशा भरी दृष्टि नहीं है विकास के गति एवं व्यवहार को लेकर बल्कि मैं विकास को इन दृश्यों में डालकर इसके फिल्टर्ड रूप को देखना चाह रहा हूँ ।  विकास को और इसके आधारभूत मार्ग को खोज रहा हूँ ।

इस खोज तथा विचार के दौरान दो मुख्य विषय निकलकर मेरे सामने खड़े हुए हैं । वो हैं मज़बूत अर्थव्यवस्था सभी स्तरों पर तथा संवेदनशील समाज । जिस समाज के विकास में इन दोनों तत्वों का पतन होगा । वह समाज अपने आप में अस्वस्थ होगा ।

जिन सदियों के विकास में यह त्रासदियाँ बढ़ती गईं हैं । उन सदियों में राजनैतिक अपराधों ने अपना जड़ मज़बूत किया है ।  

                                                                                                                                                                                     राजकुमार रजक