रन्नु ने अभी तक जो कुछ भी जीता है वो है चिलबिलाती धूप से टक्कर, उसका शरीर पसीने को पार कर तपिश में कब का ही प्रवेश कर चुका है। घर पहुँचने की प्रबल लालसा ने उसके पैरो की डोर को आज़ाद कर दिया है। उसके गाँव की खुश्बु उसकी नाक से अभी दूर है। रह रहकर के रन्नु की आँखों के सामने ऐसा अंधेरा छा जाता है। मानो दिन में अमावस रात उतर आई हो। इस रात और दिन की पहेली को बुझते हुए रन्नु बेचैन उस दिशा में बढ़ रही है जिधर से उसके गाँव की महक उसके नाक में आने लगती है और फिर धीरे –धीरे वो अपने घर की महक में लीन हो जाती है। इसी दौरान मजदूरों के झुंड पर इसकी नज़र पड़ती है। सभी दूर खेत में पेड़ों के नीचे आराम कर रहे हैं ऐसा लग रहा है कि कोई एक छोटा सा साप्ताहिक हाट लगा हो।
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रन्नु भी उन्ही मुँह ढके मजदूरों के झुंड के पास जाकर आँचल भर एक छाँव के टुकड़े में थकी मांदी सो जाती है। उसके सोये हुए चेहरे पर थकान धीरे-धीरे एक भय में तब्दील होती जा रही है। उसके माथे पर पसीने की बूंदें बुदबुदाने लगती है और होश में आकार भीषण चित्कार करने लगी भागो – भागो बचो। आस –पास के लोग समझ नहीं पाए की क्या हुआ पर रन्नु से दूर बैठे लोगों में ज़रा हलचल हुई कई तो भागने भी लगे। रन्नु को कई मज़दूर शांत कराने लगे लेकिन कोई उसे छूता नहीं, महामारी के डर से लोग दूर से ही बोलते अरे! लड़की क्या हुआ…कोई सपना देख रही है क्या? रन्नु अपनी ही धुन में रम गयी। मानो उसके अंदर लक्ष्मीबाई का प्रेत घूस गया हो। वो चित्कार कर रही थी ‘कि देखो वो शेर बेकाबू हो कर ज़िंदा इन्सानों को चट करता जा रहा है कैसे लोग भाग रहे हैं, त्राहि –त्राहि है। देखो ये क्या एक दो शेर नहीं ये तो जंगली शेरों का झुंड है जो इस सड़क पर तांडव कर रहा है। कुछ लोग सच में हदस गए और घबरा कर इधर उधर कटने लगे। आस –पास की झाडियाँ हिलती तो लोग सकपका जाते। रन्नु के आसपास की भीड़ के कुछ लोग नज़र दौड़ाने लगे सड़क की ओर। रन्नु अभी भी भीषण चित्कार कर रही थी ‘कि देखो उस औरत को जिसपर शेरों के झुंड ने हमला बोल दिया है। वो देखो पहले वो उसके कपड़े को खाल की तरह उतार फेंक रहे हैं । उसके शरीर को खा जाने के लिये शेर आपस में ताक़त की आजमाइश करने लगे हैं। ऐसा सर्कस कभी भी किसी कहानी तक में नहीं सुना। वो देखो उस बब्बर शेर ने एक ही बार में उस महिला के शरीर को तड़पते लोथड़ों में बदल दिया है। वो कोई साध्वी थी, शायद उसके हाथ का यह झण्डा वहीं खून से लथपथ है।
रन्नु घबराई हुई भागने को हुई कि देखा उसके आजूबाजू लोग एक घेरा बना कर खड़े है और मानों उसकी आँखों में उसकी आवाज़ में हो रही हलचल के भीषण दृश्य को देख रहे हों।
रन्नु ये देखकर है हैरान रह जाती है कि लोग उसे क्यों निहार रहे हैं । वो समझ जाती है और अन्य थैले से पानी पीती है। लोग वापस अपने –अपने दिशा में जाने लगते हैं। रन्नु की नज़र वापस उस बनियान पर पड़ी जो रन्नु के सोते समय आँख मिला रही थी। पसीने से तरबतर धूल से सना हुआ एक पैदल मजदूर के इस बनियान पर लिखा था माँ भारती की जय और इसके नीचे लिखा था। इस बार देसी सरकार। रन्नु इस बनियान को गौर से निहारती हुई उठ पड़ी और आगे अपने गाँव की दिशा में चल पड़ी। रन्नु ने इस तस्वीर में बनी उस त्रिशूल वाली महिला को मरते देखा, शेरों के झुंड ने उसको खत्म कर दिया। रन्नु ने ये सब घटना अपनी आँखों से देखा था। वो इसे भूल नहीं पा रही थी। लगभग सौ किलोमीटर चल चुकी थी गाँव की खुश्बु दूर से उसके नाक से संपर्क करते हुए, उसके घर पहुचने की आस को तरोताज़ा कर रही थी। उसकी आँखों में एक लंबी अमावस रात उतर रही थी। कभी खत्म न होने वाली इस रात में रन्नु समाती ही जा रही थी। उसके पैरों को अब चलने की आदत सी पड़ चुकी थी। रन्नु का शरीर कब का मर चुका था। ये उसके गाँव की ही खुश्बु थी कि उसके पैरों को खींच रही थी। अंततः इस खुश्बु की यह अंतिम तार भी हमेशा –हमेशा के लिए छुटता चला ही जा रहा था। अब जब वो इस ज़मीन पर गीरी तो हमेशा के लिए उसकी आँखों में बस पड़े अमावस के साथ ही गीरी। उसके पैरों की इच्छा अभी भी बाकी थी पर क्या करे, उसने देखा था कि ती-शर्ट पर छपी माँ भारती अब नहीं रही, वो दिवंगत हो चुकी थी। शेरों के पंजों ने उन्हे लील लिया था। रन्नु का चेहरा और हृदय चिरनिद्रा में सो चुके थे। उसके पैर जैसे घर की तरफ बढ़ जाने के लिए हर अंतिम कोशिश कर रहे थे। इन मृत सड़कों पर उनको चलने की आदत पड़ गयी थी।
हर एक रोज दुनिया के लिए पहला और कभी वापस न आने वाला दिन बन कर आता है। ये आना और जाना नापने और समझने के लिए हमने `घंटाघर बनाए हैं। जो हर बारह घंटे, हर चौबीस घंटे, हर महिने और फिर हर वर्ष का भान दे जाता है। जिस कोरोना युग से मानव पृथ्वी संघर्ष कर रही है ये युग भी घंटाघर में अपनी छाप छोड़ आगे निकल चलेगी। गणितीय तौर पर वो आगे ज़रूर होगी पर सवाल ये है की किस तरह से आगे। क्योंकि नागासाकी का दिन भी दुनिया के महाघंटाघर पर अपनी छाप छोड़ गया और जाने क्या –क्या अनवरत इतिहास होता चला जा रहा है, आप, मैं और वो हर एक चीज़ जिसकी हम कल्पना कर सकते है। लेकिन ऐसा क्या है जो निरंतर विद्यमान है। जो हिरण्यगर्भा है। जो इतिहास वर्तमान और भविष्य से परे है। वो जो नहीं है मतलब, जो है ही नहीं लेकिन समस्त कालों में विद्यमान है। जो चिरंजीवी है। जिसमे आरंभ और अंत दोनों विलय हैं। जो हाज़िर भी है और गायब भी।
फोटो राजकुमार – इलाहाबाद झूंसी ब्रिज
काल का दिव्य एवं अदिव्य रूप में पूरी दुनिया एक अदृश्य भीषण वाइरस से गुफ्तगू कर रही है। लेकिन यह भीषण वाइरस अलग-अलग तरीके से अपना असर दिखा रहा है। यह भीषण वाइरस मजदूरों के लिए एक तूफानी प्रलय की तरह आ धमका है।
23 मार्च की एक सभ्य रात में अंतिम बचे-कूचे चिथड़े सपनों के साथ हम बिस्तरी के आगोश में था। अचानक एक बुरे सपने की तरह एक घोषणा कानों को भेदती हुई दिमाग की छोटी से छोटी नसों में जा घुसी। फिर क्या था। हमेशा की तरह एक जनरल डिब्बा बन कर टट्टी पिशाब दबा कर निकल पड़ा। आप जानते हैं जब केवल निकलना मुख्य उद्देश्य हो जाये तो समझना सभ्यता नज़र छुपा रही है, बचना चाह रही है। बचा खुचा बिना पानी के ही लील जाना चाह रही है। काली माई दियासलाई, भागो बच्चों आफत आई, बचपन का ये खेल याद आया और फिर क्या था आफत के सिने को चीरते हुए मैं निकल पड़ा।
जावर चलता जा रहा था और आस –पास की बिल्डिंगों को देख उसे याद आता जा रहा था की कैसे एक खाली मैदान को उसके फौलादी हाथो ने वहाँ एक स्वर्ग जैसी आकृति खड़ी कर दी थी। वो शहर से निकलता जा रहा था और अपनी यादों को अदरक की तरह कुरेदता जा रहा था। उसके वो मजदूर साथी याद आते जा रहे थे जिनका बीड़ी का कर्ज़ आज तक नहीं उतरा, याद ठेकेदार भी आ रहा था जिसको जावर प्लास्टिक से निकाल कागज़ कप में चाय दिया करता था और मालिक भी। जावर को मालिक याद आते ही उसे लगता था जैसे उसकी रूह मालिक ने अपने पॉकेट में बंद कर ली हो। यह उसे हमेशा प्रतीत होता था। इसके बावजूद भी वो बांस की सीढ़ियों से सीमेंट ले जाते हुए मालिक को गौर से देखता उसकी मुस्कान और गुस्सा दोनों जावर को भलीभाँति याद है। जावर जब भी मालिक को देखता उसको लगता की ब्रह्म अगर कहीं होगा तो इसकी तरह ही होगा। कितना लाल, दो ठुड्डियों वाला एक शानदार आदमी जिसके आते ही मशीनों की बूढ़ी मशीनरियों में जैसे जादू छा जाता और एक नरक की गति से चलने वाली कर्कश आवाज़ कान को चाटने लगती। शहर से धीरे धीरे निकलता हुआ जावर अपने यादों से कबड्डी खेलता हुआ चल रहा है।
अहिंसा उर्फ मोहनदास घायल अवस्था में हाइवे पर अपने दुर्बल शरीर को घसीटते चला जा रहा था।
जावर से मोहनदास पूछते हैं
अहिंसा: कहाँ जा रहे हो? लगता है कई दिनों से नहाये नहीं हो। नाम क्या है तुम्हारा।
जावर : जी जावर, नंगा नहाएगा क्या और निचोड़े क्या? मैं तो बस निकल पड़ा हूँ। निकलने के रास्ते निकाल दिया गया सो निकल पड़ा।
अहिंसा: करते क्या हो?
जावर: भवन, कार्यालय और भुवन बनाने की मजदूरी करता हूँ और पेंट भी कर लेता हूँ। अगला धंधा मिलता कि बीमारी छा गयी। लोगों को ऐसी छींक आई की छींक ही बात चल पड़ी। एक बात पूछूं आप बुरा तो नहीं मानेंगे?
अहिंसा : हाँ पूछो।
जावर: क्या है कि आपके घायल शरीर को देख कर अश्वत्थामा की याद आ गयी। मेरा ससुरा कहानी सुनाने में उस्ताद था बड़ी अजीब –गरीब कहानी सुनाता था। उसी ने सुनाया था युद्धो प्यासी आत्मा की तरह भटकती रहती है इस वजह से अश्वत्थामा घायल दर-बदर भटकते , मैं कहूँ लगता है आपको रास्ते में वो कहीं मिल गया और आप पर भारी पड़ गया। आप कहाँ जा रहे हैं? उसने आप की ये हालत क्यों की?
अहिंसा: देखों, मुझे अश्वत्थामा कत्तई सुहाता नहीं। वो नरपशु की तरह धावा करता है और हिंसा से लबालब है। लेयर्टीज़ की तरह अपने बाप का बदला लेना चाहता है। मैं तो इस देश की हर नदी और समुद्र में गोते लगाते रहता हूँ इसलिए इलाहाबाद से अब आगे निकल रहा था।
जावर: देखिये आपके निकलने और मेरे निकलने में फ़र्क है।
अहिंसा: फ़र्क नहीं है भाई! असल में हम दोनों ही घायल हैं। बात ये है कि तुम और मैं दोनों को राष्ट्रवादी प्राच्य नशेड़ियों ने ही घायल किया है। हे राम! मेरे सीने की गोलियां आम की गुठली की तरह कई सालों से फेफड़ों में अटकी हुई हैं। मैंने जो जंतर बनाया था अंतिम लाइन हो या मध्य लाइन निकल पड़ने और निकाल देने की नौबत ही न आए, पर ये लोग सुनते कहाँ हैं। इसलिए तो मैं हाइवे से हाइवे के रास्ते घूमता हूँ। क्या मुझे कुछ दूर तक अपने साथ ले चल सकोगे। दर्द बढ़ता ही जा रहा है।
जावर ने सबरी की तरह अपनी धूसर बोतल से पानी की दोचार घूंट पिलायी और अहिंसा को अपने कंधे पर बैठा कर पहले की ही भांति चलने लगा।
रात में जैसे जावर की चाल में जोश आ गया हो। वो उस घायल व्यक्ति को अपने कंधे पर बैठा आगे चल ही रहा था कि इस सात मई की चाँदनी रात में इस रोशनरात में एक व्यक्ति निडर होकर सड़क के बीचोबीच लंबा कोट नुमा लबादा पहने बैठा हुआ, लिखने में व्यस्त है।
अहिंसा: ये दूर परछाई सा कौन दिख रहा है। मानो बहकती नदी के ऊपर कोई साधना कर रह हो? प्रलय की अशांति में शांति से मिलाप कर रहा हो।
जावर आश्चर्य से देखता और बढ़ता रहा, जावर को ससुर की सुनाई कहानियों के अजीबो गरीब पात्र याद आ जाते और जावर का हृदय गति दिमागी गति से तीव्र हो उठता।
जावर: मैं पूछता हूँ उससे, सुनो! तुम रास्ता छोड़ो आगे जाने दो हमें, इस बदसूरत रात में क्या लिख रहे हो? तुम तांत्रिक हो या आत्मा के संधार्थी हो या क्या हो? तुम क्या लिख रहे हो घर नहीं है क्या तुम्हारा? क्या तुमको भी निकाल दिया गया है?
परछाई वाला व्यक्ति: हाँ मैं भी कई वर्ष पहले ही निकल पड़ा हूँ अकेले ही अपनी खोज में…
तभी जावर के कंधे से फुसफुसाहट सुनाई दी कि तुम्हारी आवाज़ जानी पहचानी है। इतने में दोनों ज़रा करीब आते हैं और एक दोस्त की तरह अचानक एक दूसरे को निहारते हैं। अहिंसा पहचान जाता है और कहता है।
अहिंसा: अरे! गुरु जी, तुमि की लिखछों, कितने लंबे समय बाद ऐसी अबाक मुलाकात हुई। आखिरी मुलाकात जब तुम विद्यालयकुंज के लिए चंदा इकठ्ठा करने दिल्ली नाटक खेलने आए थे, कुछ याद आया गुरुमित्र।
परछाई वाला व्यक्ति: हाँ याद आया, मैं तो एक नयी पृथ्वी लिखना चाहता हूँ सो लंबी यात्रा कर इधर हाइवे पर ही रुक गया था, तनिक अशांत विश्राम की इच्छा हुई। पर ये बताओं तुम्हारा सीना घायल क्यों हैं।
अहिंसा : (हिचकिचाते हुए बोला) कुछ, कुछ नहीं मित्र।
परछाई वाला व्यक्ति: बोलिए , आप तो बोलते रहे हैं।
इन दोनों के चक्कर में जावर घन चक्कर हुआ जा रहा है की ये दोनों पहले से एक दूसरे को जानते हैं। इन दोनों को बातचीत करते देख कल्पना की खिड़कियाँ खोल लेता है। तरह –तरह के ख्याल आने लगते हैं। दोनों की बातों को सुन जावर के अंदर जैसे एक नया सवेरा झांकने लगा। जावर जैसे बंजर खेत में हल जोतने लगा। मानो की हल जोतने के घर्षण से सुखी ज़मीन की छाती जल प्लावन में डूब गयी। उधर रबि अपने मित्र अहिंसा से बात करते –करते गीत गा उठते हैं। जोदि तोर डाक शुने केउ न आशे…। जावर अपने ख्यालों में खोया, यह सब सुन ही रहा था कि यकायक बोल उठा।
जावर: मिलों लंबी यात्रा करनी है मैं अब आगे चलूँ ?
अहिंसा और रबि ने जावर की बात सुनी, पर अहिंसा फिर अपने बात को जारी रखते हुए कहने लगा।
अहिंसा: क्या कहूँ रबि भाई जिस रंगा सियार राष्ट्रवाद को मैं रिपेयर करना चाह रहा था उसी ने मेरे सिने को घायल किया और वही आघोरियों की तरह अपना एजेंडा तब भी और अब भी चलाये जा रहे हैं। एक नरपशु की तरह चाहे कोरोना युग का संकट में भी भीड़ के रूप में हत्याएँ करते हैं हिंसा इनका जैसे मुख्य सूत्र हो। दिमाग़ी गुलामी कब छटेगी।
परछाई वाला व्यक्ति: इस अमानवीय राष्ट्रवाद को मैकाले की सरकार ने ऐसे खूँटे से बांधा है जो एक मंद विष की तरह है और देश की रगों में अफीम बन कर घुल गयी है। जहां देश के ऊपर राष्ट्र सवार है, जहां देश से ऊपर धर्म क़ाबिज़ है। इससे व्यक्ति की अभिव्यक्ति हमेशा संकटों से घिरी रहेगी, स्वत्रंता के रंग में एक जानलेवा माहौल, जो इस देश को खा जाएगी। चिरजगत जागो हे! एई जागोरोणे, चित्तो जेथा भोय शुन्नो…।
जावर: देखो भाई आप लोग जल्दी दोस्ती यारी पूरा करो, मुझे आगे निकलना है।
परछाई वाला व्यक्ति और अहिंसा दोनों जावर से आगे बढ़ने के लिए कहते हैं…तुम जाते जाओ केवल जाते जाओ, जाते जाना ही मंज़िल है, जाओ और इन रक्तपिपाशु राष्ट्रवादियों से कहना कि हम बारबार आएंगे और मानव का परचम लहराएँगे। तुम्हारा राष्ट्रवाद एक खूंखार दीमक की तरह है, जो इस कोरोना काल में असली रूप में अंततः आ ही गया है और नरपशु बना हुआ है। अरे! ओ युगांतर के जावर, तुम जागते रहना, तुम्हारा जागना ही इस देश के आत्मा की अंतिम लौ है।
अचानक जावर को उसी जोश का आभास हुआ मानो उसको कोई संजीवनी मिल गयी हो। वो हवा से बातें करता आगे निकल पड़ा और धीरे –धीरे हाइवे के असीम दो धारी लाइनों में खो गया। आस भरी नज़रों से दोनों परछाई वाला व्यक्ति और अहिंसा खड़े निहारते रहे। वो जावर को आस भरी निगाहों से एक टक देख रहे थे मानो ये एक भीषण समय है और जावर इसको बदलने का गुप्त मंत्र जान गया हो, मानों हजारों वर्षों के बाद कोई पौ फट रही थी। उधर जावर चलता ही जा रहा था और भोर की पहली लालिमा में समाया जा रहा था। जावर की दिशा से आती हुई हवा ने दोनों के कानों में आवाज़ का एक सैलाब उठा दिया … हम जाग रहे हैं और जाग रहे हैं, जावर जाग रहा है … इस निरंकुश रात के बाद एक नयी सुबह आ रही है।
जावर, रात चल कर काटने के कारण थक कर हाइवे के किनारे बैठ सुबह – सुबह एक अखबार के टुकड़े से लिपटी हुई अपनी अंतिम रोटी का अंतिम ग्रास चबा रहा था, और थकी हुई नज़रों से निंदासी हुई नज़रो से अखबार में छपे हेडलाइन ‘देश सीख नहीं पाया : टैगोर और गांधी देश की आत्मा के कृषक’ और इस हेडलाइन के नीचे छपे दोनों की तस्वीरों पर टिकी हुई थी। नींद और जागते रहने के बीच उसका दिमाग जूझ रहा था। वो ज़रा सुस्ताकर अपने घर जाने की राह में आगे बढ़ना चाह रहा था। अहिंसा और परछाई वाला व्यक्ति के बातों की ध्वनि अभी भी इसके कानों में ज़िंदा थी। जावर परछाई वाले व्यक्ति की एक बात याद आ रही थी रवह बोल रहा था। ‘आ गए अघोरियों के दल, लोग पकड़ने वाले अघोरियों के दल जिनके नाखून भेड़ियों से भी तेज़ है।‘
अचानक जावर घबराकर खड़ा हुआ जी मेरा आधार कार्ड हहहहै। नहीं, मैं दिल्ली से चल रहा हूँ। मोतीहारी जाना है। पुलिस जावर से पूछताछ कर, नज़दीक ही चल रहे दूसरे मजदूरों के जत्थे से पूछने लगी। कहाँ जा रहे हो तुम सब? साहब अपने घर और इतने में मौका देख जावर भी इसी समूह के साथ हो लिया और उनके गीत को गुनगुनाते हुए आगे निकल पड़ा, छोटीमुकि गांधी बाबा देस के रतनवा हो, जात रहले पुजा करे एक गोली फायर भईले…।
सुनसान सड़क पर मजदूरों का झुंड चला जा रहा था। ये गुनगुनाहट सभ्य हाइवे पर पसरे सन्नाटे को चिढ़ाती जा रही थी। मानो ये गीतध्वनि कुम्भकर्ण को उठा कर ही मानेगी।
(रामरतन गुगलिया, फिरोज़ आलम और गंगेश्वर तिवारी को सहृदय धन्यवाद, जिन्होने इस लेख की प्रूफ रीडिंग की )
हमारे मस्तिष्क की जटिल बनावट लाखों वर्षों में विकसित हुई है। अब हम कुछ हद तक यह कहने की स्थिति में हैं कि हमारा मस्तिष्क एक बड़े कारखाने की तरह है। जिसमें जटिल संरचना वाले छोटे बड़े कई कमरे हैं। जो अलग -अलग कार्यों में जुटे रहते हैं और हमारे दिनचर्या की गाड़ी बनते हैं। इनमें कल्पना, संवेग, नितप्रति निर्मित होती यादें मौजूद हैं। हमारी प्रत्येक गतिविधि सामाजिक संबंधनों से जुड़ी हुई है और लगातार समाज से जटिल संपर्क साधती रहती है। हम जो हैं वही समाज है और समाज जो है हम वही है। हमारी यादें हवा में नहीं बनती जबकि हवा हमारी यादों का कोई पहलू ज़रूर हो सकता है। हमारी यादें जहां रहती हैं उनका कमरा कुदरत ने ज़रूर बड़ी सहूलियत से बनाया है और हमारे बचने के परिश्रम में यह विकसित होता चला है।
जहां की हार्डडिस्क भरती नहीं वो असीम है। आप को किसी ने क्या कहा या क्या किया अथवा क्या कहा था क्या किया था या और भी जो कुछ है सब यादें हैं और यह जब सामने आता है तो हम प्रभावित होते हैं।
हम बहुत ही प्रभावित हुए, मजदूर दिल्ली से, बंबई से कलकत्ता से और न जाने कहाँ – कहाँ से अपने घर वापस जाने लगे। कोविड महामारी के डर से । अपरिपक्व तालाबंदी की योजना के डर से देश के राजमार्गों और रेल मार्गों पर मजदूरों का रेला देखते ही बनता था। पहली बार मालूम चल रहा था की इस देश में मजदूर कहाँ -कहाँ रोज़ी रोटी रच रहे थे।
इन दृश्यों पर हजारों मीडिया कर्मी, राजनैतिक कर्मी, राजनेताओं के दिलासे वाले बयान सोशल मीडिया पर ऐसे तैर रहे थे जैसे कोई व्हेल मछली आ टपकी हो हमारे तालाब में। कई पत्र -पत्रिकाओं में इन मजदूरों की बेहाल तस्वीरें धड़ल्ले से छपीं। देश की जनता के रूप में मजदूर कभी रेल से कटे तो कभी हाइवे की दुर्घटनाओं में चले गए। ये यादें देश की छाती में छप गईं।
अब देखिये यादें बहुत ही ज़रूरी हैं जीने के लिए यहाँ तक की एक कदम के बाद अलग कदम रखने के लिए भी। पर इन यादों को कारखाने की सबसे दूर कोठरी में धकेल दिया गया जहां वो अनिश्चित काल के लिए गहन निद्रा में चली जाती है। क्योंकि इसको गहन तल में भेजने के लिए बहुत ही मशक़्क़त करनी पड़ी। जैसे साकेत परियोजना का प्रचार देश के गली -गली घर -घर तक में किया गया चंदा उगाहा गया। चुनावी माहौल में टक्कर दर टक्कर शोर गुल तैयार किया गया। प्रवासी मजदूरों की कहानी शिथिल हो ही गयी। इसके स्थान पर राष्ट्र में बिरादरी के संकट को बड़ा कर दिया गया। हिंसा की मशीनरी अपने उत्पाद में व्यस्ततमलीन हो गयी। दिल्ली फिर से दंगाओं में गहम हो उठी थी। इन सबने ऐसी भूमिका निभाई की जीवन के संघर्ष की महागाथा गाती मजदूरों के विस्थापन की स्मृतियाँ अखबारों में कहीं खो गयीं।
स्मृतियाँ मिटती नहीं उन्हे दूर कोठारी में भेजना होता है और नयी स्मृतियों को बारंबार तरह तरह से पोषित किया जाता है और इससे पहले की स्मृतियाँ वैसे ही धूमिल पड़ जाती है। यह हमें पहले ही समझने की ज़रूरत थी कि स्मृतियों पर भरपूर प्रयोग किया जाना राजनैतिक दलों का आहार है। यही हुआ जिसने मजदूरों के घर वापसी की गाथा को खा -पचा लिया। ठीक इसी तरह किसान आंदोलन की एक अभी बन रही नयी स्मृति को बंगाल के चुनावी बिगुल संरचना ने रुख मोड़ने का हर भरसक प्रयास किया।
अब देश की जनता जनार्दन को यह मजबूती से समझना होगा और निर्णय बनाना होगा कि हजारों लाशों की ये जो आहुति हो रही है और अभी कई हज़ार लोग इस आहुति के मुँह पर आ खड़े हैं इन स्मृतियों को जाया न जाने दे। इन स्मृतियों को तब तक सामने खड़ा किये रहने की ज़रूरत है जब तक एक -एक आहुति का जवाब नहीं मिल जाता कि वो भी देश के नागरिक थे जो चले गए हैं और वो भी हैं जो कतार में हैं। प्रत्येक पल जब आप सुनते हैं कि कोविड की बदहाल व्यवस्था में मृत्यु की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है और अपने मोबाइल में सुरक्षित सैकड़ो नंबर में से कई नंबर अब डिलीट हो जाएंगे अब वो कभी बात नहीं कर पाएंगे। वो कोविड के ग्रास बन गए और स्वास्थ्य व्यवस्था की लाश हो गए। इस पर तो मन कुढ़ जाता है। लाचार और बेबस एक हताश सी स्थिति बन जाती है। इन स्मृतियों को उर्वरा होना ही होगा। जो देश के हाकिम के अभिमान को मटियापलीद करेगा।
जन स्मृतियों और कल्पनाओं पर इतना प्रयोग किया गया है और इसे बीमार किया गया है की विद्यालय के बच्चे से लेकर उसके माँ-बाप तक यह मान लिया जाता है कि सड़क, बिजली और पानी ही चुनावी एजेंडा हैं और गाँव में शहर में इसके आते ही विकास मान लिया जाता है या यूं कहा जाये की विकास का चेहरा ऐसे ही प्रस्तुत किया जाता रहा है। यह बिजली, सड़क और पानी आज़ादी के बाद से ही आज़ाद आज़ाद देश में एक सबब बनी पड़ी है। राजनेताओं से लेकर ग्राम सरपंच तक के द्वारा यह घोषित कर दिया जाता है कि यह सड़क, पानी , बिजली ही विकास है। इसी भ्रांति के कारण आज हम ऑक्सीज़न, बेड और शमशान के मध्य आ खड़े हुए हैं। हमें अपने पाठ्यक्रमों से लेकर अभिभावकों तक और हम सभी के दैनिक जीवन तक स्मृतिजाल के भ्रांति को मिटानी होगी। हमें प्रत्येक नागरिक को स्वयं इस घोषित विकास की घोषणा कि यादों से बाहर निकाल आना होगा और स्वास्थ्य , खाद्य और शिक्षा के नारे को बुलंद करना होगा। अपनी स्मृतियों में इसे बार -बार बसाना होगा जिससे भाषणों के भीतर बह रहे स्मृतियों के मायाजाल से देश को सचेत किया जा सके और समृद्ध बनाया जा सके। लोकतन्त्र को ऑक्सीज़न दिया जा सके।
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कोविड से पहले भी एसी ही थी ये तो कोविड के आने से भरपूर मात्र में उजागर हो गयी है। अतः इस स्मृति को हमें सामने रख कर ज़िम्मेदारी से जिम्मेदार लोकतन्त्र को खड़ा करना ही होगा तभी इस देश के लोकतन्त्र के स्वास्थ्य को सुखाय बनाया जा सकेगा। लोकतन्त्र की ज़िम्मेदारी वाला जिम्मेदार नागरिक के स्मृतियों के नव निर्माण के अवसरों को गढ़ा जा सकेगा।