मृणाल
मुक्ति के अर्तनाद की स्व सारथी
यहाँ रंगमंच समूह में कई दिनों से विविध कहानियों की प्रस्तुति एवं इसके विषयवस्तु पर विमर्श का सिलसिला चल रहा है। इस सिलसिले में कहानियों के अलावा स्थानीय या दूरस्थ के घटनाओं को भी शामिल किया जा रहा है। इन जद्दोजहद के पीछे दो मुख्य उद्देश्य हैं कि रंग संभागी निर्माण शैली और विषयवस्तु के अंतर्द्वंद एवं इसके अंतरसंबंधों पर अपनी एक अनुभविक निर्णय एवं समझ बना पाएँ कि विषयवस्तु शैली को जनम देती है या शैली विषयवस्तु को जनम देता है, या दोनों एक साथ एक दूसरे को पोषित करअंकुरित होते हैं, या कुछ और भी, खैर इसी क्रम में मैं, कई दिनो से कई कहानियां पढ़ रहा था कुछ को पहली बार और कुछ को तो कई बार के बाद फिर एक बार। इन कहानियों के उपवन में एक कहानी स्मृतियों से निकल पुनः झाँकने लगी। एक ऐसी कहानी जो सभ्यताओं के क्रूर और प्लास्टिकिया विचारों से दूर विश्वदेव की अवधारणा को हमारे सामने उद्घाटित करता है।
ये वो कहानी है जो एक पत्र में बयां होती है, सभ्य की निर्ममता और असभ्य के दारुण संघर्षों को उकेरती है। इस कहानी में बिन्दु की अंत में असह्य आत्महत्या, मानव के मन के भीतर संचारित होते मानव का असहनीय अंत का रूपक है। असभ्य पर सभ्य की, मानव पर मशीन की, प्रकृति पर अप्राकृत की, मानव पर अमानव, गाँव पर शहर की एक बार फिर जीत है। बिन्दु का शास्त्रों को आत्मसमर्पण तथा जीवन का महामृत्यु को समर्पण हुआ है। अनाश्रित भ्रमणशील बिन्दु को ढ़ान्ढस बँधाती ऊर्जायित करती मृणाल बार –बार सभ्यता के समाने मशीनों के सामने निर्भीक हो अकेले राही की तरह अडिग खड़ी दिखाई पड़ती है। अंतस में बसे मानव के विशाल रूप का अप्राकृत हो जाने पर भी प्रकृति के मंगल जीवन के गीत को, अपने मन के गभीर गहन तल में गाती है। प्रत्येक बार रूढ़ियों के बरक्स उठ खड़ी होती है।
अपने मन के मानव के भ्रूण को सृजित करती, सँजोती है। किसी थमे हुए अग्नि गर्भ की तरह इसको पालती –पोषती है। मानव के सभ्य कंकालों के मध्य निर्भीक आषाढ के बादलों से मनालाप करती अपनी यात्रा की सारथी। मानव जीवन की स्वतंत्रा का शंखनाद करती है। मानव मुक्ति की सतत सजग लालसा को समुद्र की भांति अपने गभीर अथाह उफान से रूपायित करती है। मानव को प्राकृत सृजित करती है। अंधकार पर प्रकाश की एकछत्र जय ध्वनि बरसाती है। मानव मंगल की गीत गुनगुनाती है। मानव की मुक्ति को संचारित करता मृणाल का यह पत्र मानो सीता का अंतिम पत्र हो।
रबीन्द्र नाथ की कहानियाँ केवल सामाजिक परिवेश की ही घटनाओं का दस्तावेजीकरण नहीं बल्कि अंतस और वाह्य जगत के अंतर्द्वंधों को उजागर करती है। जहां विश्वकवि कवि-कहानीकार अपने विश्वदेव में असीम विश्वास को दर्शाता है। मानव के भीतर इसकी पड़ताल करता है वर्तमान को निचोड़ता है, मानव से छूटते जा रहे मानव की डोर की करूण गाथा गाता है। एक मानव के नाते मानव को प्राकृत सँजोये रखने की जद्दोजहद का सिफ़रिश करता है। सभ्य के निर्मम दंश से मानव के मन को तन को आत्मा को लगातार सँजोये रखने का आदिम संघर्ष करता है।
मृणाल विश्वकवि की प्रतिछाया के रूप में नज़र आती है, जिसका बिन्दु रूपी मन बार –बार प्रलयंकारी सभ्यता की रूढ़ियों से खुद को घिरा हुआ और इसके चक्रव्युह में अनैच्छिक आत्मसमर्पित पाता है। विश्वकवि जीवन रूपी पंखुड़ियों को अपने काँधों पर, मृणाल पर असीम काल के सभ्य तूफानों और परमाणुवीय हबोहवाओं से जुझते हुए नव जीवन को सृजित करता है। बारंबार मानव कल्याण के ऋतुओं की गाथा रचता है। एक बार फिर सभ्य महाप्रलय से इतर एक स्वतंत्र संसार की रचना करता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रकृति के पुंज को विस्तारित करता है और मृणाल के माध्यम से हमारी मुक्ति की संकल्पना को संप्रेषित करता है।
रबीन्द्र नाथ इस कहानी से नारी अस्मिता के स्थापन एवं संघर्षो में मानव के मुक्ति की भी कामना को पोषित करते हैं। समाजिक संस्थाओं में व्याप्त रूढ़ियों में स्त्री की अवधारणा को खंडित करते हैं एवं अस्मिता स्थापना में नारी को मानव स्थापित करते हैं। मानव शक्ति के रूप में विश्व मानव स्थापित करते हैं। इस तरह समूचे मानव की अस्मिता, स्वतंत्रता और मुक्ति को विस्तारित करने की सचल प्रेरणा देते हैं। मानव जनित सभ्य कारागारों के वाह्य एवं अंतरमहल में शोषित हो रहे मानव से मानव को पुनः सर्जित करने की दिशा में मानव के रूप में ही मुक्ति की स्वतंत्र कामना करते हैं।
रबीन्द्र नाथ टैगोर के मानव मुक्ति की आर्तनाद के इस कहानी ‘स्त्रीर पत्र’ (पत्नी का पत्र) को काफी लंबे समय के बाद पुनः सुना और पढ़ा, आज यह कहानी कुछ इस प्रकार समझ बना पायी है। आप सभी से इस समझ को साझा कर रहा हूँ। कहानीकार के विषयवस्तु और मानव अस्मिता की दृष्टि दोनों एकात्म हो अपने विशिष्ट शैली को जनम देती है। हाज़िर दुनिया के संघर्षों के रूपक की तरहअपनी आयु संचारित और पोषित करती हैं। भविष्यों के लिए जन्माअंश की भूमिका निर्माण करती हैं फिर एक अन्यतम स्वरूप में परिवर्तित होती है निरंतर, मृणाल की तरह सतत चलने के और मुक्ति की कामना में…।
सादर
राजकुमार रजक
4/3/2019
टोंक –राजस्थान